BHDC 112 Solved Assignment 2022-2023

निम्नलिखित गद्यांशों की संदर्भ सहित व्याख्या कीजिए।
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वॉल्यूम 1


1. हिंदी निबंध का उद्भव और विकास पर प्रकाश डालिए।


Answer 1 :-


हिन्दी साहित्य के आधुनिक युग में भारतेन्दु और उनके सहयोगियों से निबंध लिखने की परम्परा का आरंभ होता है। निबंध ही नहीं, गद्य की कई विधाओं का प्रचलन भारतेन्दु से होता है। यह इस बात का प्रमाण है कि गद्य और उसकी विधाएँ आधुनिक मनुष्य के स्वाधीन व्यक्तित्व के अधिक अनुकूल हैं।

मोटे रूप में स्वाधीनता आधुनिक मनुष्य का केन्द्रीय भाव है। इस भाव के कारण परम्परा की रूढ़ियाँ दिखाई पड़ती हैं। सामयिक परिस्थितियों का दबाव अनुभव होता है। भविष्य की संभावनाएँ खुलती जान पड़ती हैं। इसी को इतिहास-बोध कहा जाता है। भारतेन्दु युग का साहित्य इस इतिहास-बोध के कारण आधुनिक माना जाता है।

निबन्ध गद्य लेखन की एक विधा है। लेकिन इस शब्द का प्रयोग किसी विषय की तार्किक और बौद्धिक विवेचना करने वाले लेखों के लिए भी किया जाता है। निबंध के पर्याय रूप में सन्दर्भ, रचना और प्रस्ताव का भी उल्लेख किया जाता है। लेकिन साहित्यिक आलोचना में सर्वाधिक प्रचलित शब्द निबंध ही है।

इसे अंग्रेजी के कम्पोज़ीशन और एस्से के अर्थ में ग्रहण किया जाता है। आचार्य हजारीप्रसाद दूविवेदी के अनुसार संस्कृत में भी निबंध का साहित्य है। प्राचीन संस्कृत साहित्य के उन निबंधों में धर्मशास्त्रीय सिद्धांतों की तार्किक व्याख्या की जाती थी। उनमें व्यक्तित्व की विशेषता नहीं होती थी। किन्तु वर्तमान काल के निबंध संस्कृत के निबंधों से ठीक उलटे हैं। उनमें व्यक्तित्व या वैयक्तिकता का गुण सर्वप्रधान है।

इतिहास-बोध परम्परा की रूढ़ियों से मनुष्य के व्यक्तित्व को मुक्त करता है। निबंध की विधा का संबंध इसी इतिहास-बोध से है। यही कारण है कि निबंध की प्रधान विशेषता व्यक्तित्व का प्रकाशन है।



हिन्दी भाषा का इतिहास लगभग एक हजार वर्ष पुराना माना गया है। सामान्यतः प्राकृत की अन्तिम अपभंश अवस्था से ही हिन्दी साहित्य का आविर्भाव स्वीकार किया जाता है। उस समय अपभंश के कई रूप थे और उनमें सातवीं-आठवीं शताब्दी से ही 'पद्य' रचना प्रारम्भ हो गयी थी। हिन्दी भाषा व साहित्य के जानकार अपभंश की अंतिम अवस्था 'अवहट्ट' से हिन्दी का उद्धव स्वीकार करते हैं।चन्द्रधर शर्मा 'गुलेरी' ने इसी अवहड्ट को 'पुरानी हिन्दी' नाम दिया।

साहित्य की दृष्टि से पद्यबद्ध जो रचनाएँ मिलती हैं वे दोहा रूप में ही हैं और उनके विषय, धर्म, नीति, उपदेश आदि प्रमुख हैं। राजाश्रित कवि और चारण नीति, शृंगार, शौर्य, पराक्रम आदि के वर्णन से अपनी साहित्य-रुचि का परिचय दिया करते थे। यह रचना-परम्परा आगे चलकर शौरसेनी अपभंश या प्राकृताभास हिन्दी में कई वर्षों तक चलती रही।

पुरानी अपभंश भाषा और बोलचाल की देशी माथा का प्रयोग निरन्तर बढ़ता गया। इस भाषा को विद्यापति ने 'देसी भाषा' कहा है, किन्तु यह निर्णय करना सरल नहीं है कि 'हिन्दी' शब्द का प्रयोग इस भाषा के लिए कब और किस देश में प्रारम्भ हुआ। हाँ, इतना अवश्य कहा जा सकता है कि प्रारम्भ में 'हिन्दी' शब्द का प्रयोग विदेशी मुसलमानों ने किया था। इस शब्द से उनका तात्पर्य 'भारतीय भाषा' का था।

हिंदी भाषा की जितनी मांग है, इंटरनेट पर उतनी उपलब्धता नहीं है। लेकिन जिस रफ़्तार से भारत मैं इंटरनेट का विकास हुआ है उसी तरह से हिंदी भी इंटरनेट पर छा रही है। समाचारपत्र से लेकर हिंदी ब्लॉग तक अपनी उपस्थिति दर्ज करा रहा है। साधुवाद तो गूगल को भी जाता है जिसने हिंदी में खोज करने की जगह उपलब्ध कराई।

इतना ही नहीं विकिपीडिया ने भी हिंदीको महत्ता को समझते हुए कई सारी सामग्री का सॉफ्टवेयर अनुवाद हिंदी मैं प्रदान करना शुरू कर दिया जिससे हिंदी भाषी को किसी भी विषय की जानकरी सुलभ हुई। आजकल हिंदी भी इंटरनेट की एक अहम्‌ लोकप्रिय भाषा बन कर उभरी है। मेरा मानना है जब लोग अपने विचार और लेखन हिंदी भाषा में इंटरनेट पर ज्यादा करेंगे तो वह दिन दूर नहीं की सारी सामग्री हिंदी मैं भी इंटरनेट पर मिलने लगेगी।

12. निम्नलिखित में से किन्हीं दो की सप्रसंग व्याख्या लिखिए :


(क) हल चलाने वाले और भेड़ चराने वाले प्रायः स्वभाव से ही साधु होते हैं। हल चलाने वाले अपने शरीर का हवन किया करते हैं। खेत उनकी हवनशाला है। उनके हवनकुंड की ज्वाला की किरणें चावल के लंबे और सफेद दानों के रूप में निकलती है। गेहूँ के लाल-लाल दाने इस अग्नि की चिनगारियों की डालियों-सी हैं। मैं जब कभी अनार के फूल और फल देखता हूँ तब मुझे बाग के माली का रुधिर याद आ जाता है। उसकी मेहनत के कण जीमन में गिरकर उगे है और हवा तथा प्रकाश की सहायता से मीठे फलों के रूप में नजर आ रहे हैं। किसान मुझे अन्न में, फूल में, फल में आहुति हुआ सा दिखाई पड़ता है।"

Answer :-


वालि (संस्कृत) या बालि रामायण का एक पात्र है। वह सुग्रीव का बड़ा भाई था। वह किष्किन्धा का राजा था,इन्द्रका पुत्र बताया जाता है तथा बंदरों के रूप थे। राम रूपी विष्णु ने उसका वध किया। हालाँकि रामायण की पुस्तक किष्किन्धाकाण्ड के 67 अध्यायों में से अध्याय 5 से लेकर 26 तक ही वालि का वर्णन किया गया है, फिर भी रामायण में वालि की एक मुख्य भूमिका रही है, विशेषकर उसके वध को लेकर।

बालि और सुग्रीव के जन्म के विषय में एक रोचक बात है और उस बात के अनुसार बालि और सुग्रीव तीन पुरुषों से उत्पन्न हुए थे। रामायण के उत्तर काण्ड के अनुसार ऋक्षराज नामक एक वानर था जो अपने बल के मद मैं चूर रहता था। एक दिन वह बल के मद में चूर होकर एक सरोवर पर स्नान करने गया।



कहतें हैं कि वह सरोवर परमपिता ब्रहमा के स्वेद अर्थात्‌ पसीने से बना था और उस तालाब पर श्राप था कि को भी पुरुष उस सरोवर मैं स्नान करेगा वह सुन्दर स्त्री और जो स्त्री उसमें स्नान करेगी वह पुरुष बन जाएगी। ऋक्षराज अपने बल के मद में चूर था उसे इस बात का ज्ञात नहीं था। वह जैसे ही उस तालाब में स्नान करने के लिए गया तो वह सुन्दर स्त्री बन गया। अपने घर को जाते हुए उसे मार्ग में देवराज इन्द्र मिल गए।

इन्द्र जो इस बात से अज्ञात थे कि वो कोई स्त्री नहीं अपितु एक पुरुष है। इन्द्र उसके सौंदर्य पर मोहित हो गए और उनके मन में काम भाव जागा। उन्होंने स्त्री रूपी ऋक्षराज के साथ सम्भोग किया और कालान्तर में ऋक्षराज ने एक बालक को जन्म दिया जिसके सुन्दर केश अर्थात्‌ बाल होने के कारण उसका नाम बालि रखा गया। ऋक्षराज ने अपने पुत्र बालि को महर्षि गौतम और उनकी पत्नी अहल्या को सौंप दिया। ऋक्षराज के उस सुन्दर स्त्री रूप को देखकर भगवान सूर्य भी उस पर मोहित! हो गए।

सूर्यदेव ने भी ऋक्षराज के साथ सम्भोग किया और कालान्तर मैं ऋक्षराज ने सुन्दर ग्रीवा अर्थात्‌ गर्दन वाले बालक को जन्म दिया जिसका नाम सुग्रीव रखा गया। सुग्रीव को भी ऋक्षराज ने गौतम ऋषि और अहल्या को सौंप दिया।

बालि का विवाह वानर वैद्यराज सुषेण की पुत्री तारा के साथ सम्पन्न हुआ था। एक कथा के अनुसार समुद्र मन्थन के दौरान चौदह मणियों में से एक अप्सराएँ थीं। उन्हीं अप्सराओं मैं से एक तारा थी। बालि और सुषेण दोनों मन्थन में देवतागण की मदद कर रहे थे। जब उन्होंने तारा को देखा तो दोनों में उसे पत्नी बनाने की होड़ लगी। ।

वालि तारा के दाहिनी तरफ़ तथा सुषेण उसके बायीं तरफ़ खड़े हो गये। तब विष्णु ने फ़ैसला सुनाया कि विवाह के समय कन्या के दाहिनी तरफ़ उसका होने वाला पति तथा बायीं तरफ़ कन्यादान करने वाला पिता होता है। अतः बालि तारा का पति तथा सुषेण उसका पिता घोषित किये गये।



ऐसा कहा जाता है कि बालि को उसके पिता इन्द्र से एक स्वर्ण हार प्राप्त हुआ जिसको ब्रहमा ने मंत्रयुक्‍्त करके यह वरदान दिया था कि इसको पहनकर वह जब भी रणभूमि में अपने दुश्मन का सामना करेगा तो उसके दुश्मन की आधी शक्ति क्षीण हो जायेगी और वालि को प्राप्त हो जायेगी। इस कारण से वालि लगभग अजेय था। रामायण में ऐसा प्रसंग आता है कि एक बार जब वालि संध्यावन्दन के लिए जा रहा था तो आकाश से नारद मुनि जा रहे थे।

वालि ने उनका अभिवादन किया तो नारद ने बताया कि वह लंका जा रहे हैं जहाँ ल्लंकापति रावण ने देवराज इन्द्र को परास्त करने के उपलक्ष में भोज का आयोजन किया है। चंचल स्वभाव के नारद - जिन्हें सर्वज्ञान है - ने बालि से चुटकी लेने की कोशिश की और कहा कि अब तो पूरे ब्रहमाण्ड में केवल रावण का ही आधिपत्य है और सारे प्राणी, यहाँ तक कि देवतागण भी उसे ही शीश नवाते हैं।

वालि ने कहा कि रावण ने अपने वरदान और अपनी सेना का इस्तेमाल उनको दबाने मैं किया है जो निर्बल हैं लेकिन मैं उनमें से नहीं हूँ और आप यह बात रावण को स्पष्ट कर दें। सर्वज्ञानी नारद ने यही बात रावण को जा कर बताई जिसे सुनकर रावण क्रोधित हो गया। उसने अपनी सेना तैयार करने के आदेश दे डाले।

नारद ने उससे भी चुटकी लेते ह्ये कहा कि एक वानर के लिए यदि आप पूरी सेना लेकर जायेंगे तो आपके सम्मान के लिए यह उचित नहीं होगा। रावण तुरन्त मान गया और अपने पुष्पक विमान में बैठकर वालि के पास पहुँच गया। वालि उस समय संध्यावन्दन कर रहा था। वालि की स्वर्णमयी कांति देखकर रावण घबरा गया और वालि के पीछे से वार करने की चेष्टा की।

(ख) "दुख की श्रेणी में प्रवृत्ति के विचार से करुणा का उलटा क्रोध है। क्रोध जिसके प्रति उत्पन्न होती है उसकी हानि की चेष्टा की जाती है। करुणा जिसके प्रति उत्पन्न होता है उसकी भलाई का उद्योग किया जाता है। किसी पर प्रसन्न होकर भी लोग उसकी भलाई करते हैं। इस प्रकार पात्र की भलाई के उत्तेजना दुःख और आनंद दोनों ही श्रेणियों में रखी गई है।"

Answer :-

उत्तर – क्रोध या गुस्सा एक भावना है। दैहिक स्तर पर क्रोध करने/होने पर हृदय की गति बढ़ जाती है; रक्त चाप बढ़ जाता है। यह भय से उपज सकता है। भय व्यवहार में स्पष्ट रूप से व्यक्त होता है जब व्यक्ति भय के कारण को रोकने की कोशिश करता है। क्रोध मानव के लिए हानिकारक है। क्रोध कायरता का चिह्न है।

सनकी आदमी को अधिक क्रोध आता है उसमे परिस्थितीयो का बोझ झेलने का साहस और धैर्य नही होता।क्रोध संतापयुक्त विकलता की दशा है। क्रोध मे व्यक्ति की सोचने समझने की क्षमता लुप्त हो जाती है और वह समाज की नजरो से गिर जाता है।क्रोध आने का प्रमुख कारण व्यक्तिगत या सामाजिक अवमानना है।

उपेक्षित तिरस्कृत और हेय समझे जाने वाले लोग अधिक क्रोध करते है। क्योंकि वे क्रोध जैसी नकारात्मक गतिविधी के द्वारा भी समाज को दिखाना चाहते है कि उनका भी अस्तित्व है।क्रोध का ध्येय किसी व्यक्ति विशेष या समाज से प्रेम की अपेक्षा करना भी होता है।



क्रोध प्रकट करने से पहले: कार्यालय में तनाव अधिक होना धैर्य क्षमता को कम करता है। जब आपके काम का श्रेय कोई और ले लेता है अथवा आपके काम पर प्रश्न उठाता है तो क्रोध के लक्षण उभरने लगते हैं। पर इससे पहले कि क्रोध हम पर हावी हो जाए हमें इसका प्रबंध करना जरूरी हो जाता है।

हमें क्रोध के मूल कारण को जानने और समझने की जरूरत है। आप संबंधित व्यक्ति से बातचौत कर सकते हैं अथवा सीनियर के साथ मीटिंग भी कर सकते हैं। सीनियर द्वारा आपके काम पर प्रश्न बदला लेने के लिए तत्पर न रहें।धैर्य मानव का सबसे बड़ा गुण है। गलती मानवीय स्वभाव है, हमेशा सटीक होना सम्भव नहीं है।

गुस्सा एक ऐसी अवस्था है जिसमें विचार तो आतें हैं लेकिन भाव अपनी प्रधानता पर होते हैं और सामने वाला कौन है? हमारा उससे कया सबंध है? हमें उससे कैसा व्यवहार करना चाहिए ? आदि विचार लुप्त हो जाते हैं!

वास्तविकता यह है कि जब हमें गुस्सा आता है तो हम ज्यादा दूर तक नहीं सोच पाते बल्कि उससे होने वाले परिणाम के बारे में भी नहीं सोच पाते । बस दिमाग में रहता है तो वो है गुस्सा, गुस्सा, और गुस्सा। आपका दिमाग तभी संतुलित होकर सोच सकता है जब आप आपके अन्दर किसी भाव की अधिकता न हो । आपने देखा होगा कि जब हम बहुत खुश रहते हैं तबभी हम सही से नहीं सोच पाते । जब कोई भाव हमारे ऊपर पूरी तरह से हावी होता है तो सबसे ज्यादा हमारी "सोचने की क्षमता" प्रभावित होती है ।

(ग) “जिसका ऐश्वर्य से अभिषेक हो रहा था, वह निर्वासित हो गया। उत्कर्ष की ओर उन्मुख समष्टि का चैतन्य अपने ही घर से बाहर कर दिया गया, उत्कर्ष की मनुष्य की ऊध्वोन्मुख चेतना की यही कीमत सनातन काल से अदा की जाती रही है। इसीलिए जब कीमत अदा कर ही दी गयी, तो उत्कर्ष कम से कम सुरक्षित रहे, यह चिंता स्वाभाविक हो जाती है।"

खंड-2

निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर 700-800 शब्दों में लिखिए।

3. ललित निबंध से क्या आशय है, इसकी विशेषताएँ लिखिए।


Answer 3 :-

 ललित निबंध निबंध का एक प्रकार है। ललित निबन्ध विधा की उपस्थिति का आभास आधुनिक काल और गद्य विधा के आरम्भ के साथ ही मिलने लगता है।

भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, प्रतापनारायण मिश्र, सरदार पूर्ण सिंह, चंद्रधर शर्मा गुलेरी, बालमुकुन्द गुप्त, पदुमलाल पुन्नालाल बक्शी आदि के निबन्धों में इस विधा के पूर्वाभास दिखाई पड़ने लगते हैं, लेकिन एक व्यवस्थित और महत्वपूर्ण विधा के रूप में इसकी पहचान पहले-पहल आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के निबन्धों में दिखाई पड़ती है।

“अशोक के फूल', 'कुटज *और “'कल्पलता' संकलनों के निबंध पहले-पहल इस विधा के प्रतिदर्श बने। अतः उनके ये निबन्ध ही इस विधा के वास्तविक प्रस्थान बिन्दु हैं। आगे चलकर कुबेर नाथ राय, विद्या निवास मिश्र, विवेकी राय , परिचय दास आदि निबन्धकारों ने इसे और समूद किया।

निबन्ध गद्य लेखन की एक विधा है। लेकिन इस शब्द का प्रयोग किसी विषय की तार्किक और बौद्धिक विवेचना करने वाले लेखों के लिए भी किया जाता है। निबंध के पर्याय रूप में सन्दर्भ, रचना और प्रस्ताव का भी उल्लेख किया जाता है। लेकिन साहित्यिक आलोचना में सर्वाधिक प्रचलित शब्द निबंध ही है।

इसे अंग्रेजी के कम्पोज़ीशन और एस्से के अर्थ में ग्रहण किया जाता है। आचार्य हजारीप्रसाद दविवेदी के अनुसार संस्कृत में भी निबंध का साहित्य है। प्राचीन संस्कृत साहित्य के उन निबंधों में धर्मशास्त्रीय सिद्धांतों की तार्किक व्याख्या की जाती थी। उनमें व्यक्तित्व की विशेषता नहीं होती थी। किन्तु वर्तमान काल के निबंध संस्कृत के निबंधों से ठीक उलटे हैं। उनमें व्यक्तित्व या वैयक्तिकता का गुण सर्वप्रधान है।

हिन्दी साहित्य के आधुनिक युग में भारतेन्दु और उनके सहयोगियों से निबंध लिखने की परम्परा का आरंभ होता है। निबंध ही नहीं, गद्य की कई विधाओं का प्रचलन भारतेन्दु से होता है। यह इस बात का प्रमाण है कि गद्य और उसकी विधाएँ आधुनिक मनुष्य के स्वाधीन व्यक्तित्व के अधिक अनुकूल हैं।

मोटे रूप में स्वाधीनता आधुनिक मनुष्य का केन्द्रीय भाव है। इस भाव के कारण परम्परा की रूढ़ियाँ दिखाई पड़ती हैं। सामयिक परिस्थितियों का दबाव अनुभव होता है। भ्वविष्य की संभावनाएँ खुलती जान पड़ती हैं। इसी को इतिहास-बोध कहा जाता है। भारतेन्दु युग का साहित्य इस इतिहास-बोध के कारण आधुनिक माना जाता है।

4. देवदार निबंध की थीसिस लिखें।

Answer 4:-


देवदार एक सीधे तने वाला ऊँचा शंकुधारी पेड़ है, जिसके पत्ते लंबे और कुछ गोलाई लिये होते हैं तथा जिसकी लकड़ी मजबूत किन्तु हल्की और सुगंधित होती है। इनके शंकु का आकार सनोबर (फ़र) से काफी मिलता-जुलता होता है। इनका मूलस्थान पश्चिमी हिमालय के पर्वतों तथा भूमध्यसागरीय क्षेत्र में है, (500-3200 मीटर तक हिमालय में तथा 000- 2000 मीटर तक भूमध्य सागरीय क्षेत्र में)।

यह इमारतों में काम आती है।यह पश्चिमी हिमालय, पूर्वी अफगानिस्तान, उत्तरी पाकिस्तान, उत्तर-मध्य... भारत के हिमाचल. प्रदेश, उत्तराखंड, जम्मू _ एवं कश्मीर तथा दक्षिण-पश्चिमी तिब्बत एवं पश्चिमी नेपाल में 500-3200 मीटर की ऊंचाई पर पाया जाता है।

यह एक शंकुधारी वृक्ष होता है, जिसकी ऊंचाई 40-50 मी. तक और कक्ी-कभार 60 मी. तक होती है। इसके तने 2 मीटर तक और खास वृक्षों में ३ मीटर तक के होते हैं। इसकी कुछ प्रजातियों को स्निग्धदारु और काष्ठदारु के नाम से भी जाना जाता है। स्निग्ध देवदारु की लकड़ी और तेल दवा बनाने के काम में भी आते हैं। इसके अन्य नामों मैं देवदारु प्रसिद्ध है। यह निचले पहाड़ी क्षेत्रों में पाया जाता है।

पहाड़ी संस्कृति का अभिन्न अंग देवदार का वृक्ष सदा से कवियों तथा लेखकों का प्रेरणा सोत रहा है। देवदार के पत्ते हरे रंग के और कुछ लाली लिए हुए होते है। देवदार तीखा तेज स्वाद और कर्कश सुगन्ध वाला होता है। इसकी तासीर गर्म होती है इस कारण अधिक मात्रा में उपयोग फ़ेफ़ड़ों के लिए हानिकारक होता है।

देवदार के दोषों को कतीरा और बादाम का तेल नष्ट करता है। इसकी तुलना अधाख से की जा सकती है। इसे अनेक दोषों को नष्ट करनेवाला कहा गया है। यह सूजन को पचाता है, सर्दी से उत्पन्न होने वाली पीड़ा को शांत करता है, पथरी को तोड़ता है और इसकी लकड़ी के गुनगुने काढ़े में बैठने से गुदा के सभी प्रकार के घाव नष्ट हो जाते है।

5. 'मेरे राम का मुकुट भींग रहा है का सारांश लिखिए।


Answer 5 :-

विद्यानिवास मिश्र का निबंध “मेरे राम का मुकुट भीग रहा है” मेरे राम का मुकुट भीग रहा हैं निबंध में मिश्र जी का मन राम के मुकुट भीगने की ' चिंता से व्यथित है। साथ ही लक्ष्मण कादुपट्टा और सीता की मांग के सिंदूर के भीगने की चिंता भी उन्हें है। उनका चिरंजीव और उनकी मेहमान एक लड़की संगीत कार्यक्रम में गए हैं। रात के बारह बजे तक भी वे नहीं लॉटते तो मिश्र जी का मन दादी-नानी के उन गीतों की ओर जाता है जब वह उनके लौटने पर गाती थी “मेरे लाल को कैसा वनवास मिला था” उस समय तो यह आकुलता समझ नहीं आती परंतु आज जब हम उसी स्थिति में पहुंच गए हैं तो उस गीत का एक-एम शब्द सार्थक लगता है।

मन उन लाखों करोड़ों कौसल्याओं की ओर दौड़ जाता है जिनके राम वन में निर्वासित है और उनके मुकुट भीगने की चिंता है। मुकुट लोगों. के मन में बसा हुआ है। काशी की रामलीला आरंभ होनें से पहले निश्चित मुहूर्त मुकुट की पूजा की जाती है। मुकुट तो मस्तक पर विराजमान है। राम भीगे तो भीगे पर मुकुट न भीगने पाए। इसी बात की चिंता है। राम के उत्कर्ष की कल्पना न भीगे, वह हर बारिश में, हर दुर्दिन मैं सुरक्षित रहे। राम तो वन से लौटकर राजा बन जाते हैं परंतु सीता रानी होते ही राम द्वारा निर्वासित कर दी जाती है।

पर इस निर्वासन में भी सीता का सौभाग्य अखण्डित है वह राम के मुकुट को तब भी प्रमाणित करता है और राम को पीड़ा भी देता है। इस पीड़ा से राम का मुकुट इतना भारी हो जाता है कि वह इस बोझ से कराह उठते हैं और इस वेदना की चीत्कार में सीता के माथे का सिंदूर और दमक उठता है यह सोचते-सोचते चार बज गए और अचानक चिरंजीव और लड़की के आने की आवाज आई । महेमान लड़की के रात को देर से घर लौटने पर सीता का ख्याल आ जाता है। यह ख्याल आज की अर्थहीन उदासी को कुछ ऐसा अर्थ हो जाता है जिससे जिदंगी ऊब से कुछ उबर सके।

6. 'आम रास्ता नहीं है, यह किस विधा का है? इसके महत्व पर प्रकाश डालिए।


Answer 6:-


नीतिशास्त्र जिसे व्यवहारदर्शन, नीतिदर्शन, नीतिविज्ञान और आचारशास्त्र भी कहते हैं, दर्शनशास्त्र एवं की वह शाखा है जो नैतिक मूल्यों के सिध्दान्त एवं सही और गलत व्यवहार के अवधारणाओं के व्यवस्थिकरण, तर्कबद्ध बचाव तथा संस्तुति से संपृक्त है ।

यद्यपि आचारशास्त्र की परिभाषा तथा क्षेत्र प्रत्येक युग में मतभेद के विषय रहे हैं, फिर भी व्यापक रूप से यह कहा जा सकता है कि आचारशास्त्र मैं उन सामान्य सिद्धांतों का विवेचन होता है जिनके आधार पर मानवीय क्रियाओं और उद्देश्यों का मूल्याँकन संभव हो सके।

अधिकतर लेखक और विचारक इस बात से भी सहमत हैं कि आचारशास्त्र का संबंध मुख्यतः मानंदडों और मूल्यों से है, न कि वस्तुस्थितियों के अध्ययन या खोज से और इन मानदंडों का प्रयोग न केवल व्यक्तिगत जीवन के विश्लेषण में किया जाना चाहिए वरन्‌ सामाजिक जीवन के विश्लेषण में भी। नीतिशास मानव को सही निर्णय लेने की क्षमता विकसित करता है।

अच्छा और बुरा, सही और गलत, गुण और दोष, न्याय और जुर्म जैसी अवधारणाओं को परिभाषित करके, नीतिशास्त्र मानवीय नैतिकता के प्रश्नों को सुलझाने का प्रयास करता हैं। बौद्धिक समीक्षा के क्षेत्र के रूप मैं, वह नैतिक दर्शन, वर्णात्मक नीतिशास्त्र, और मूल्य सिद्धांत के क्षेत्रों से भी संबंधित हैं।



रशवर्थ कीडर कहते हैं कि ""नीतिशास्त्र* की मानक परिभाषाओं में 'आदर्श मानव चरित्र का विज्ञान' या 'नैतिक कर्तव्य का विज्ञान' जैसे वाक्यांश आम तौर पर शामिल रहे हैं।" रिचर्ड विलियम पॉल और लिंडा एल्‍्डर की परिभाषा के अनुसार, नीतिशास्त्र "एक संकल्पनाओं और सिद्धान्तों का समुच्चय हैं, जो, कौनसा व्यवहार संवेदन-समर्थ जीवों की मदद करता हैं या उन्हें नुकसान पहुँचता हैं, ये निर्धारित करने में हमारा मार्गदर्शन करता हैं”। कैम्ब्रिज डिक्शनरी ऑफ़ फिलोसिफी यह कहती हैं कि नीतिशास्त्र शब्द का "उपयोग सामान्यतः विनिमियी रूप से 'नैतिकता' के साथ होता हैं' और कभी-कभी किसी विशेष परम्परा, समूह या व्यक्ति के नैतिक सिद्धान्तों के अर्थ हेतु इसका अधिक संकीर्ण उपयोग होता हैं"।

पॉल और एल्डर कहते हैं कि ज़्यादातर लोग सामजिक प्रथाओं, धार्मिक आस्थाओं और विधि इनके अनुसार व्यवहार करने और नीतिशास्त्र के मध्य भ्रमित हो जाते हैं और नीतिशास्त्र को अकेली संकल्पना नहीं मानते।

"नीतिशास्त्र" शब्द के कई अर्थ होते हैं। इसका सन्दर्भ दार्शनिक नीतिशास्त्र या नैतिक दर्शन (एक परियोजना जो कई तरह के नैतिक प्रश्नों का उत्तर देने 'कारण' का उपयोग करती हो) से हो सकता हैं।

मनुष्य के व्यवहार का अध्ययन अनेक शास्त्रों में अनेक दृष्टियों से किया जाता है। मानवव्यवहार, प्रकृति के व्यापारों की भांति, कार्य-कारण-शूंखला के रूप में होता है और उसका कारणमूलक अध्ययन एवं व्याख्या की जा सकती है। मनोविज्ञान यही करता है। किंतु प्राकृतिक व्यापारों को हम अच्छा या बुरा कहकर विशेषित नहीं करते।



रास्ते में अचानक वर्षा आ जाने से भीगने पर हम बादलों को कुवाच्य नहीं कहने लगते। इसके विपरीत साथी मनुष्यों के कर्मों पर हम बराबर भले-बुरे का निर्णय देते हैं। इस प्रकार निर्णय देने की सार्वभौम मानवीय प्रवृत्ति ही आचारदर्शन की जननी है। आचारशास्त्र में हम व्यवस्थित रूप से चिंतन करते हुए यह जानने का प्रयत्न करते हैं कि हमारे अच्छाई-बुराई के निर्णयों का बुद्धिग्राहय आधार क्या है।

कहा जाता है, आचारशास्त्र नियामक अथवा आदर्शान्वेषी विज्ञान है, जबकि मनोविज्ञान याथार्थान्वेषी शास्त्र है। निश्चय ही शास्त्रों के इस वर्गीकरण में कुछ तथ्य है, पर वह भ्रामक भी हो सकता है। उक्त वर्गीकरण यह धारणा उत्पन्न कर सकता है कि आचारदर्शन का काम नैतिक व्यवहार के नियमों का अन्वेषण तथा उद्घाटन नहीं है, अपितु कृत्रिम ढंग से वैसे नियमों को मानव समाज पर लाद देना है।

किंतु यह धारणा गलत है। नीतिशास्त्र जिन नैतिक नियमों की खोज करता है वे स्वयं मनुष्य की मूल चेतना में निहित हैं। अवश्य ही यह चेतना विभिन्‍न समाजों तथा युगों में विभिन्‍न रूप धारण करती दिखाई देती है। इस अनेकरूपता का प्रधान कारण मानव प्रकृति की जटिलता तथा मानवीय श्रेय की विविधरूपता है।

विभिन्‍न देशकालों के विचारक अपने समाजों के प्रचलित विधिनिषेधों में निहित नैतिक पैमानों का ही अन्वेषण करते हैं। हमारे अपने युग मैं ही, अनेक नई पुरानी संस्कृतियों के सम्मिलन के कारण, विचारकों के लिए यह संभव हो सकता है कि वे अनगिनत रूढ़ियों तथा सापेक्ष्य मान्यताओं से ऊपर उठकर वस्तुत: सार्वभौम नैतिक सिद्धांतों के उद्घाटन की ओर अग्रसर हों।

खंड-3

7. महाकवि जयशंकर प्रसाद 'संस्मरण' के प्रमुख कथा का भाव क्या है, लिखिए। 


Answer 7:-


जयशंकर प्रसाद (30 जनवरी 1889 - 5 नवंबर 1937), हिन्दी कवि, नाटककार,कहानीकार, उपन्यासकार तथा निबन्ध-लेखक थे। वे हिन्दी के छायावादी युग के चार प्रमुख स्तंभों में से एक हैं।

उन्होंने हिन्दी काव्य में एक तरह से छायावाद की स्थापना की जिसके द्वारा खड़ीबोली के काव्य में न केवल कमनीय माधुर्य की रससिद्ध धारा प्रवाहित हुई, बल्कि जीवन के सूक्ष्म एवं व्यापक आयामों के चित्रण की शक्ति भी संचित हुई और कामायनी तक पहुँचकर वह काव्य प्रेरक शक्तिकाव्य के रूप में भी प्रतिष्ठित हो गया।

बाद के, प्रगतिशील एवं नयी कविता दोनों धाराओं के, प्रमुख आलोचकों ने उसकी इस शक्तिमत्ता को स्वीकृति दी। इसका एक अतिरिक्त प्रभाव यह भी हुआ कि 'खड़ीबोली' हिन्दी काव्य की निर्विवाद सिद्ध भाषा बन गयी।

आधुनिक हिन्दी साहित्य के इतिहास में इनके कृतित्व का गॉरव अक्षुण्ण है। वे एक युगप्रवर्तक लेखक थे जिन्होंने एक ही साथ कविता, नाटक, कहानी और उपन्यास के क्षेत्र में हिन्दी को गौरवान्वित होने योग्य कृतियाँ दीं।

कवि के रूप में वे निराला, पन्‍्त, महादेवी के साथ छायावाद के प्रमुख स्तम्भ के रूप में प्रतिष्ठित हुए हैं; नाटक लेखन में भारतेन्दु के बाद वे एक अलग धारा बहाने वाले युगप्रवर्तकनाटककार रहे जिनके नाटक आज भी पाठक न केवल चाव से पढ़ते हैं, बल्कि उनकी अर्थगर्भिता तथा रंगमंचीय प्रासंगिकता भी दिनानुदिन बढ़ती ही गयी है।

इस दृष्टि से उनकी महत्ता पहचानने एवं स्थापित करने में वीरेन्द्र नारायण, शांता गाँधी, सत्येन्द्र तनेजा एवं अब कई दृष्टियों से सबसे बढ़कर महेश आनन्द का प्रशंसनीय ऐतिहासिक योगदान रहा है। इसके अलावा कहानी और उपन्यास के क्षेत्र में भी उन्होंने कई यादगार कृतियाँ दीं।

भारतीय दृष्टि तथा हिन्दी के विन्यास के अनुरूप गम्भीर निबन्ध-लेखक के रूप में वे प्रसिद्ध रहे हैं। उन्होंने अपनी विविध रचनाओं के माध्यम से मानवीय करुणा और भारतीय मनीषा के अनेकानेक गौरवपूर्ण पक्षों का उद्घाटन कलात्मक रूप में किया है।

8. तुम्हारी स्मृति संस्मरण का प्रतिपाद्य बताइए ।


Answer 8:-


स्मृति के आधार पर किसी विषय पर अथवा किसी व्यक्ति पर लिखित आलेख संस्मरण कहलाता है। यात्रा साहित्य भी इसके अन्तर्गत आता है। संस्मरण को साहित्यिक निबन्ध की एक प्रवृत्ति भी माना जा सकता है। ऐसी रचनाओं को 'संस्मरणात्मक निबंध' कहा जा सकता है। व्यापक रूप से संस्मरण आत्मचरित के अन्तर्गत लिया जा सकता है।

किन्तु संस्मरण और आत्मचरित के दृष्टिकोण में मौलिक अन्तर है। आत्मचरित के लेखक का मुख्य उद्देश्य अपनी जीवनकथा का वर्णन करना होता है। इसमें कथा का प्रमुख पात्र स्वयं लेखक होता है। संस्मरण लेखक का दृष्टिकोण भिन्न रहता है। संस्मरण में लेखक जो कुछ स्वयं देखता है और स्वयं अनुभव करता है उसी का चित्रण करता है।

लेखक की स्वयं की अनुभूतियाँ तथा संवेदनायें संस्मरण में अन्तर्निहित रहती हैं। इस दृष्टि से संस्मरण का लेखक निबन्धकार के अधिक निकट है। वह अपने चारों और के जीवन का वर्णन करता है। इतिहासकार के समान वह केवल यथातथ्य विवरण प्रस्तुत नहीं करता है। पाश्चात्य साहित्य मैं साहित्यकारों के अतिरिक्त अनेक राजनेताओं तथा सेनानायकों ने भी अपने संस्मरण लिखे हैं, जिनका साहित्यिक महत्त्व स्वीकारा गया है।

हिन्दी के प्रारंभिक संस्मरण लेखकों में पकू सिंह शर्मा हैं। इनके अतिरिक्त बनारसीदास चतुर्वेदी, महादेवी वर्मा तथा रामवृक्ष बेनीपुरी आदि हैं। चतुर्वेदी ने "संस्मरण" तथा "हमारे अपराध" शीर्षक कृतियों में अपने विविध संस्मरण आकर्षक शैली में लिखे हैं। हिन्दी के अनेक अन्य लेखकों तथा लेखिकाओं ने भी बहुत अच्छे संस्मरण लिखे हैं।



उनमें से कुछ साहित्यकारों का उल्लेख करना प्रासंगिक होगा। श्रीमती महादेवी वर्मा की "स्मृति की रेखाएँ" तथा "अतीत के चलचित्र" संस्मरण साहित्य की श्रेष्ठ कृतियों हैं। रामबृक्ष बेनीपुरी की कृति "माटी की मूरतें" में जीवन में अनायास मिलने वाले सामान्य व्यक्तियों का;जीव एवं संवेदनात्मक कोमल चित्रण किया गया है।

इनके अतिरिक्त देवेन्द्र सत्यार्थी ने लोकगीतों का संग्रह करने हेतु देश के विभिन्‍न क्षेत्रें की यात्रायें की थीं, इन स्थानों के संस्मरणों को भावात्मक शैली में उन्होंने लिखा है। "क्या गोरी क्या साँवली" तथा "रेखाएँ बोल उठीं" सत्यार्थी के संस्मरणों के अपने ढंग के संग्रह हैं। भदन्त- आनन्द कोसल्यायन ने अपने यात्र जीवन की विविध घटनाओं तथा परिस्थितियों के संदर्भ में जो अनेक पात्र मिले उनके सम्बन्ध में अपने संस्मरणात्मक आलेखों को दो संकलनों "जो न भूल सका" तथा "जो लिखना पड़ा" मैं संगृहीत किया है।

कन्हैयालाल मिश्र प्रभाकर ने "भूले हुए चेहरे” तथा "दीपजले शंख बजे" मैं अपने कतिपय अच्छे और आकर्षक संस्मरण संकलित किये। संस्मरण को साहित्यिक निबन्ध की एक प्रवृत्ति भी माना जा सकता है। ऐसी रचनाओं को संस्मरणात्मक निबंध कहा जा सकता है। गुलाबराय की कृति "मेरी असफलताएँ" को संस्मरणात्मक निबन्ध की कोटि में रखा जा सकता है।

हिन्दी के अन्य अनेक लेखकों ने भी अच्छे संस्मरण लिखे हैं जिनमे प्रमुख है राजा राधिकारमण सिंह की 'सावनी समां', और 'सूरदास', रामधारी सिंह 'दिनकर' की 'लोकदेव नेहरु' व संस्मरण और श्रद्धांजलियाँ', डॉ रामकुमार वर्मा की 'संस्मरणों के सुमन' आदि।

9. 'गिल्लू' अथवा 'ये है प्रोफेसर शशांक' का कथासार लिखिए।


Answer 9 :-


गिल्लू महादेवी वर्मा की "मेरा परिवार" नामक कृति से लिया गया एक भाग है जिसमें लेखिका ने एक गिलहरी का मनुष्य के प्रति प्रेम भाव का वर्णन किया गया है यह उनके एक निजी जीवन के असल घटना पर आधारित है।महादेवी वर्मा का जन्म फर्रुखाबाद (उत्तर प्रदेश) के एक सम्पन्न कायस्थ परिवार में सन्‌ 1907 ई. में हुआ था। प्रारम्भिक शिक्षा के बाद इन्होंने क्रास्थते ट गर्ल्स कालेज (इलाहाबाद) में शिक्षा प्राप्त की। इनके पिता गोविन्दप्रसाद वर्मा व माता श्रीमती हेमरानी देवी है। इनका विवाह अल्पायु में ही हो गया था। श्वसुर के कारण इनकी शिक्षा रुक गयी। जिनके मरणोपरान्त इनकी शिक्षा पूर्ण हुई। इनकी भाषा संस्कृतनिष्ठ खड़ीबोली है। इनका देहावसान 7 सितम्बर 1987 को प्रयाग में हुआ।

सोनजुही में आज एक पीली कली लगी है। उसे देखकर अनायास ही उस छोटे जीव का स्मरण हो आया, जो इस लता की सघन हरीतिमा में छिपकर बैठता था और फिर मेरे निकट पहुँचते ही करणे पर कूदकर मुझे चौंका देता था। तब मुझे कली की खोज रहती थी, पर आज उस लघुप्राणी की खोज है।

परन्तु वह तो अब तक इस सोनजुही की जड़ में मिट्टी होकर मिल गया होगा कौन जाने स्वर्णिम कली के बहाने वही मुझे चौंकाने उपर आ गया हो।

अचानक एक दिन सवेरे कमरे के बरामदे में आकर मैंने देखा, दो कौए एक गमले के चारों ओर चॉंचों से छुवा-छुवौवल जैसा खेल खेल रहे हैं। यह कागभुशुण्डि भी विचित्र पक्षी है-एक साथ समादरित, अनादरित, अति सम्मानित, अति अवमानित।

हमारे बेचारे पुरखे न गरुड़ के रुप में आ सकते हैं, न मयूर के, न हंस के। उन्हें पितरपक्ष में हमसे कुछ पाने के लिए काक बनकर ही अवतीर्ण होना पड़ता है। इतना ही नहीं, हमारे दूरस्थ प्रियजनों को भी अपने आने का मधु सन्देश इनके कर्कश स्वर ही में देना पड़ता है। दूसरी ओर हम कौआ और कॉँव-काँव करने की अवमानना के अर्थ में ही प्रयुक्त करते हैं।

मेरे काऊपुराण के विवेचन में अचानक बाधा आ पड़ी, क्योंकि गमले और दीवार की सन्दि में छिपे एक छोटे-से जीव पर मेरी दृष्टि रुक गयी। निकट जाकर देखा, गिलहरी का छोटा-सा बच्चा है, जो सम्भवतः घोंसले से गिर पड़ा है और अब कौए जिसमें सुलभ आहार खोज रहें हैं। काकद्‌वय की चोंचों के दो घाव उस लघुप्राण के लिए बहुत थे। अतः वह निश्चेष्ट-सा गमले में चिपटा पड़ा था।



सबने कहा कि कॉए की चॉंच. | घाव लगने जादू हूँ बच ही उवता, , अत: इसे ऐसे ही रहने दिया जाये।

परन्तु मन नहीं माना, उसे हौले से उठाकर अपने कमरे में ले आयी, फिर रूई से रक्त पॉंछकर घावों पर पेन्सिलीन का मरहम लगाया।

रूई की पतली बत्ती दूध में भिगोकर जैसे-तैसे उसके नन्हैं-से मुँह में लगायी, पर मुँह खुल न सका और दूध की बूँदें दोनो ओर लुढ़क गयीं।

कई घण्टे के उपचार के उपरान्त उसके मुँह में एक बूँद पानी टपकाया जा सका। तीसरे दिन वह इतना अच्छा और आश्वस्त हो गया कि मेरी उँगली अपने दो नन्हें पंजों से पकड़कर, नीले कॉाँच की मोतियों -जैसी आँखों से इधर-उधर देखने लगा।

तीन-चार मास मैं उसके स्निम्ध रोंएँ, झब्बेदार पूँछ और चंचल चमकीली आँखें सबको 'विस्मित करने लगीं।

हमने इसकी जातिवाचक संज्ञा को व्यक्तिवाचक का रूप दे दिया और इस प्रकार हम उसे "गिल्लू" कहकर बुलाने लगे। मैंने फूल रखने की एक हल्की डलिया में रूई बिछाकर उसे तार से खिड़की पर लटका दिया।

वही दो वर्ष "गिल्लू" का घर रहा। वह स्वंय हिलाकर अपने घर में झुलता और अपनी काँच के मनकों-सी आंखों से कमरे के भीतर और खिड़की से बाहर न जाने क्या देखता-समझता रहता था, परन्तु समझदारी और कार्यकलाप पर सबको आश्चर्य होता था।

जब मैं लिखने बैठती तब अपनी ओर मेरा ध्यान आकर्षित करने की उसे इतनी तीव्र इच्छा होती थी उसने एक अच्छा उपाय खोज निकाला।

वह मेरे पैर तक आकर सर से परदे पर चढ़ जाता और फिर उसी तेजी से उतरता। उसका यह दौड़ने का क्रम तब तक चलता, जब तक मैं उसे पकड़ने के लिए न उठती।

कभी मैं "गिल्लू" को पकड़कर एक लम्बे लिफाफे मैं इस प्रकार रख देती कि अगले दो पंजे और सिर के अतिरिक्त सारा लघु गात लिफाफे के भीतर बन्द रहता। इस अद्भुत स्थिति में कभी- कभी घण्टों मेज पर दीवार के सहारे खड़ा रहकर वह अपनी चमकीली आँखों से मेरा कार्यकलाप देखा करता।

भूख लगने पर चिक-चिक करके मानो वह मुझे सूचना देता है और काजू या बिस्कुट मिल जाने पर उसी स्थिति में लिफाफे से बाहर वाले पंजों से पकड़कर उसे कुतरता रहता।

फिर "गिल्लू" के जीवन का प्रथम वसन्त आया। नीम-चमेली की गन्ध मेरे कमरे में हौले-हौले आने लगी। बाहर की गिलहरियाँ खिड़की की जाली के पास आकर चिक-चिक करके न जाने क्या कहने लगीं।

"गिल्लू" को जाली के पास बैठकर अपनेपन से बाहर झाँकते देखकर मुझे लगा कि इसे मुक्त करना आवश्यक है।

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