BHDC 113 Solved Assignment 2022-2023

भाग-1

1. साहित्यिक पत्रकारिता के स्वरूप विकास पर प्रकाश डालिए ।

Answer 1 :-

हिंदी पत्रकारिता का दूसरा युग 1873 से 1900 तक चलता है। इस युग के एक छोर पर आारतेन्दु का "हरिश्चंद्र मैगजीन" था ओर नागरीप्रचारिणी सभा द्वारा अनुमोदनप्राप्त "सरस्वती" इन 27 वर्षों मैं प्रकाशित पत्रों की संख्या 300-350 से ऊपर है और ये नागपुर तक फैले हुए हैं। अधिकांश पत्र मासिक या साप्ताहिक थे।


मासिक पत्रों में निबंध, नवल कथा (उपन्यास), वार्ता आदि के रूप में कुछ अधिक स्थायी संपत्ति रहती थी, परन्तु अधिकांश पत्र 10-15 पृष्ठों से अधिक नहीं जाते थे और उन्हें हम आज के शब्दों में "विचारपत्र" ही कह सकते हैं। साप्ताहिक पत्रों में समाचारों और उनपर टिप्पणियों का भी महत्त्वपूर्ण स्थान था।


वास्तव में दैनिक समाचार के प्रति उस समय विशेष आग्रह नहीं था और कदाचित्‌ इसीलिए उन दिनों साप्ताहिक और मासिक पत्र कहीं अधिक महत्वपूर्ण थे। उन्होंने जनजागरण में अत्यंत महत्वपूर्ण भाग लिया था।

उन्नीसवीं शताब्दी के इन 25 वर्षों का आदर्श भारतेन्दु की पत्रकारिता थी। "कविवचनसुधा" (1867), "हरिश्चंद्र मैगजीन" (1874), श्री हरिश्चंद्र चंद्रिका" (1874), बालबोधिनी (स्त्रीजन की पत्रिका, 1874) के रूप में भारतेन्दु ने इस दिशा में पथप्रदर्शन किया था। उनकी टीकाटिप्पणियों से अधिकरी तक घबराते थे और "कविवचनसुधा” के "पंच" पर रुष्ट होकर काशी के मजिस्ट्रेट ने भारतेन्दु के पत्रों को शिक्षा विभाग के लिए लेना भी बंद करा दिया था।


इसमें संदेह नहीं कि पत्रकारिता के क्षेत्र भी भारतेन्दु पूर्णतया निर्भीक थे और उन्होंने नए नए पत्रों के लिए प्रोत्साहन दिया। "हिंदी प्रदीप", "भारतजीवन" आदि अनेक पत्रों का नामकरण भी उन्होंने ही किया था। उनके युग के सभी पत्रकार उन्हें अग्रणी मानते थे।

भारतेन्दु के बाद इस क्षेत्र में जो पत्रकार आए उनमें प्रमुख थे पंडित रुद्रदत्त शर्मा, (भारतमित्र, 1877), बालकृष्ण भट्ट (हिंदी प्रदीप, 1877), दुर्गाप्रसाद मिश्र (उचित वक्ता, 1878), पंडित सदानंद मिश्र (सारसुधानिधि, 1878), पंडित वंशीधर (सज्जन-कीर्त्ति-सुधाकर, 1878), बदरीनारायण चौधरी "प्रेमधन" (आनंदकादंबिनी, 1881), देवकीनंदन त्रिपाठी (प्रयाग समाचार, 1882), राधाचरण गोस्वामी(भारतेन्दु, 1882), पंडित गौरीदत्त (देवनागरी प्रचारक, 1882), राज रामपाल सिंह (हिंदुस्तान, 1883), प्रतापनारायण मिश्र (ब्राहमण, 1883), अंबिकादत्त व्यास, (पीयूषप्रवाह, 1884), बाबूरामकृष्ण वर्मा (भारतजीवन, 1884), पं. रामगुलाम अवस्थी (शुभचिंतक, 1888), योगेशचंद्र वसु (हिंदी बंगवासी, 1890), पं. कुंदनलाल (कवि व चित्रकार, 1891) और बाबू देवकीनंदन खत्री एवं बाबू जगन्नाथदास (साहित्य सुधानिधि, 1894) |


1895 ई. में "नागरीप्रचारिणी पत्रिका” का प्रकाशन आरंभ होता है। इस पत्रिका से गंभीर साहित्यसमीक्षा का आरंभ हुआ और इसलिए हम इसे एक निश्चित प्रकाशस्तंभ मान सकते हैं। 1900 ई. में "सरस्वती" और "सुदर्शन" के अवतरण के साथ हिंदी पत्रकारिता के इस दूसरे युग पर पटाक्षेप हो जाता है।

इन 25 वर्षों में हिन्दी पत्रकारिता अनेक दिशाओं में विकसित हुई। प्रारंभिक पत्र शिक्षाप्रसार और धर्मप्रचार तक सीमित थे। भारतेन्दु ने सामाजिक, राजनीतिक और साहित्यिक दिशाएँ भी विकसित कीं उन्होंने ही "बालाबोधिनी" (1874) नाम से पहला स्त्री-मासिक-पत्र चलाया। कुछ! वर्ष बाद महिलाओं को स्वयं इस क्षेत्र में उतरते देखते हैं - "भारतभगिनी" (हरदेवी, 1888), "सुगृहिणी" (हेमंतकुमारी, 1889)।

इन वर्षों में धर्म के क्षेत्र में आर्यसमाज और सनातन धर्म के प्रचारक विशेष सक्रिय थे। ब्रहमसमाज और राधास्वामी मत से संबंधित कुछ पत्र और मिर्जापुर जैसे ईसाई केंद्रों से कुछ ईसाई धर्म संबंधी पत्र भी सामने आते हैं, परंतु युग की धार्मिक प्रतिक्रियाओं को हम आर्यसमाज के और पौराणिकों के पत्रों में ही पाते हैं।

आज ये पत्र कदाचित्‌ उतने महत्वपूर्ण नहीं जान पड़ते, परंतु इसमें संदेह नहीं कि उन्होंने हिन्दी की गद्यशैली को पुष्ट किया और जनता में नए विचारों की ज्योति भी। इन धार्मिक वादविवादों के फलस्वरूप समाज के विभिन्‍न वर्ग और संप्रदाय सुधार की ओर अग्रसर हुए और! बहुत शीघ्र ही सांप्रदायिक पत्रों की बाढ़ आ गई। सैकड़ों की संख्या में विभिन्‍न जातीय और वर्गीय पत्र प्रकाशित हुए और उन्होंने असंख्य जनों को वाणी दी।

आज वही पत्र हमारी इतिहासचेतना में विशेष महत्वपूर्ण हैं जिन्होंने भाषा शैली, साहित्य अथवा राजनीति के क्षेत्र में कोई अप्रतिम कार्य किया हो। साहित्यिक दृष्टि से "हिंदी प्रदीप" (1877), ब्राहमण (1883), क्षत्रियपत्रिका (1880), आनंदकादंबिनी (1881), भारतेन्दु (1882), देवनागरी प्रचारक (1882), वैष्णव पत्रिका (पश्चात्‌ पीयूषप्रवाह, 1883), कवि के चित्रकार (1897), नागरी नीरद (1883), साहित्य सुधानिधि (894) और राजनीतिक दृष्टि से भारतमित्र (1877), उचित वक्ता (1878), सार सुधानिधि (1878), भारतोदय (दैनिक, 1883), भारत जीवन (1884), भारतोदय (दैनिक, 1885), शुभचिंतक (1887) और हिंदी बंगवासी (1890) विशेष महत्वपूर्ण हैं।


इन पत्रों में हमारे 9वीं शताब्दी के साहित्यरसिकों, हिंदी के कर्मठ उपासकों, शैलीकारों और चिंतकों की सर्वश्रेष्ठ निधि सुरक्षित है। यह क्षोभ का विषय है कि हम इस महत्वपूर्ण सामग्री का पत्रों की फाइलों से उद्धार नहीं कर सके।

बालकृष्ण भट्ट, प्रतापनारायण मिश्र, सदानं मिश्र, रुद्रदत्त शर्मा, अंबिकादत्त व्यास और बालमुकुंद गुप्त जैसे सजीव लेखकों की कलम से निकले हुए न जाने कितने निबंध, टिप्पणी, लेख, पंच, हास परिहास औप स्केच आज में हमें अलभ्य हो रहे हैं। आज भी हमारे पत्रकार उनसे बहुत कुछ सीख सकते हैं। अपने समय मैं तो वे अग्रणी थे ही।


बीसर्वी शताब्दी की पत्रकारिता हमारे लिए अपेक्षाकृत निकट है और उसमें बहुत कुछ पिछले युग की पत्रकारिता की ही विविधता और बहुरूपता मिलती है। 9वीं शती के पत्रकारों को भाषा- शैलीक्षेत्र में अव्यवस्था का सामना करना पड़ा था। उन्हें एक ओर अंग्रेजी और दूसरी और उर्दू के पत्रों के सामने अपनी वस्तु रखनी थी।

अभी हिंदी में रुचि रखनेवाली जनता बहुत छोटी थी। धीरे-धीरे परिस्थिति बदली और हम हिंदी पत्रों को साहित्य और राजनीति के क्षेत्र में नेतृत्व करते पाते हैं। इस शताब्दी से धर्म और समाजसुधार के आंदोलन कुछ पीछे पड़ गए और जातीय चेतना ने धीरे-धीरे राष्ट्रीय चेतना का रूप ग्रहण कर लिया।


'फलत: अधिकांश पत्र, साहित्य और राजनीति को ही लेकर चले। साहित्यिक पत्रों के क्षेत्र में 'पहले दो दशकों में आचार्य द्विवेदी द्वारा संपादित "सरस्वती" (1903-98) का नेतृत्व रहा। वस्तुत: इन बीस वर्षों मैं हिंदी के मासिक पत्र एक महान साहित्यिक शक्ति के रूप में सामने आए।

शृंखलित उपन्यास कहानी के रूप में कई पत्र प्रकाशित हुए - जैसे उपन्यास 1907, हिंदी नाविल 1907, उपन्यास लहरी 1902, उपन्याससागर 1903, उपन्यास कुसुमांजलि 1904, उपन्यासबहार 1907, उपन्यास प्रचार 1921 केवल कविता अथवा समस्यापूर्ति लेकर अनेक पत्र उननीसवीं शतब्दी के अंतिम वर्षो में निकलने लगे थे। वे चले रहे। समालोचना के क्षेत्र में "समालोचक" (1902) और ऐतिहासिक शोध से संबंधित “इतिहास” (1905) का प्रकाशन भी महत्वपूर्ण घटनाएँ हैं।

परंतु सरस्वती ने "मिस्लेनी” () के रूप में जो आदर्श रखा था, वह अधिक लोकप्रिय रहा और इस श्रेणी के पत्रों मैं उसके साथ कुछ थोड़े ही पत्रों का नाम लिया जा सकता है, जैसे "भारतेन्दु" (1905), नागरी हितैषिणी पत्रिका, बॉकीपुर (1905), नागरीप्रचारक (1906), मिथिलामिहिर (1970) और इंदु (1909)।

"सरस्वती" और "इंदु" दौनों हिन्दी की साहित्यचेतना के इतिहास के लिए महत्वपूर्ण हैं और 'एक तरह से हम उन्हें उस युग की साहित्यिक पत्रकारिता का शीर्षमणि कह सकते हैं। “सरस्वती” के माध्यम से आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी और "इंदु” के माध्यम से पंडित रूपनारायण पांडेय ने जिस संपादकीय सतर्कता, अध्यवसाय और ईमानदारी का आदर्श हमारे सामने रखा वह हिन्दी पत्रकारिता को एक नई दिशा देने में समर्थ हुआ।

2. निम्नलिखित विषयों पर टिप्पणी लिखिए। 

(क) कविवचन सुधा

Answer 2 :-


कविवचनसुधा भारतेन्दु हरिशचंद्र दवारा सम्पादित एक हिन्दी समाचारपत्र था। इसका प्रकाशन 5 अगस्त 1867 को वाराणसी आरम्भ हुआ जो एक क्रांतिकारी घटना थी। यह कविता-केन्द्रित पत्र था। इस पत्र ने हिन्दी साहित्य और हिन्दी पत्रकारिता को नये आयाम प्रदान किए। हिन्दी के महान समालोचक डॉ. रामविलास शर्मा लिखते हैं- "कवि वचन सुधा का प्रकाशन करके भारतेन्दु ने एक नए युग का सूत्रपात किया।"

आरम्भ में भारतेन्दु 'कविवचनसुधा' में पुराने कवियों की रचनाएँ छापते थे, जैसे चंद बरदाई का रासो, कबीर की साखी, जायसी का पद्मावत, बिहारी के दोहे, देव का अष्टयाम और दीनदयालु गिरि का अनुराग बाग।

'कविवचनसुधा' में साहित्य तो छपता ही था, उसके अलावा समाचार, यात्रा, ज्ञान-विज्ञान, धर्म, राजनीति और समाज नीति विषयक लेख भी प्रकाशित होते थे। इससे पत्रिका की जनप्रियता बढ़ती गई। लोकप्रिया इतनी कि उसे मासिक से पाक्षिक और फिर साप्ताहिक कर दिया गया। प्रकाशन के दूसरे वर्ष यह पत्रिका पाक्षिक हो गई थी और 5 सितंबर, 1873 से साप्ताहिक।

भारतेन्दु की टीकाटिप्पणियों से अधिकरी तक घबराते थे और “कविवचनसुधा” के “पंच” पर रुष्ट होकर काशी के मजिस्ट्रेट ने भारतेन्दु के पत्रों को शिक्षा विभाग के लिए लेना भी बंद करा दिया था।

सात वर्षो तक 'कविवचनसुधा' का संपादक-प्रकाशन करने के बाद भारतेन्दु ने उसे अपने मित्र चिंतामणि धड़फले को सौंप दिया और 'हरिश्चंद्र मैग्जीन' का प्रकाशन 5 अक्टूबर, 1873 को बनारस से आरम्भ किया। 'हरिश्चंद्र मैगजीन' के मुखपृष्ठ पर उल्लेख रहता था कि यह 'कविवचनसुधा' से संबद्ध है।

उस ज़माने में यह एक बहुत बड़ी राशि थी। वे 78 वर्ष की उमर मैं रेलवे में बहाल हुए थे। उनका जन्म 1864 ई. में हुआ था और 1882 ई. से उन्होंने नौकरी प्रारंभ की थी। नौकरी करते हुए वे अजमेर, बंबई, नागपुर, होशंगाबाद, इटारसी, जबलपुर एवं झाँसी शहरों में रहे। इसी दौरान उन्होंने संस्कृत एवं ब्रजभाषा पर अधिकार प्राप्त करते हुए पिंगल अर्थात्‌ उंदशास्त्र का अभ्यास किया।

उन्होंने अपनी पहली पुस्तक 895 ई. में श्रीमहिम्नस्तोत्र की रचना की, जो पुष्यदंत के संस्कृत काव्य का ब्रजभाषा में काव्य रूपांतर है। द्विवेदी जी ने सभी पद्यरचनाओं का भावार्थ खड़ी बोली गद्य में ही किया है। उन्होंने इसकी भूमिका मैं लिखा है, “इस कार्य में हुशंगाबादस्थ बाबू हरिश्चन्द्र कुलश्रेष्ठ का जो सांप्रत मध्यप्रदेश राजधानी नागपुर मैं विराजमान हैं, मैं परम कृतज हूँ।”

अपने 'आत्म-निवेदन' मैं उन्होंने लिखा है, “बचपन से मेरा अनुराग तुलसीदास की रामायण और ब्रजवासीदास के ब्रजविलास पर हो गया था। फुटकर कविता भी मैंने सैकड़ों कंठ कर लिए थे।

हुशंगाबाद में रहते समय भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के कविवचन सुधा और गोस्वामी राधाचरण के 'एक मासिक पत्र ने मेरे उस अनुराग की वृद्धि कर दी। वहीं मैंने बाबू हरिश्चंद्र कुलश्रेष्ठ नाम के 'एक सज्जन से, जो वहीं कचहरी में मुलाजिम थे, पिंगल का पाठ पढ़ा। फिर क्या था, मैं अपने को कवि ही नहीं, महाकवि समझने लगा।

(ख) अभ्युदय

Answer :-

अभ्युदय का अर्थ 'सांसारिक सौख्य तथा समृद्धि की प्राप्ति'। महर्षि कणाद ने धर्म की परिभाषा में अभ्युदय की सिद्धि को भी परिगणित किया है। भारतीय धर्म की उदार भावना के अनुसार धर्म केवल मोक्ष की सिद्धि का ही उपाय नहीं, प्रत्युत ऐहिक सुख तथा उन्नति का भी साधन है।


इसलिए वैदिक धर्म में अभ्युदय काल में श्राद्ध का विधान विहित है। रघुनन्दन भट्टाचार्य ने अभ्युदय श्राद्ध को दो प्रकार का माना है : भूत जो पुत्रजन्मादि के समय होता है और भविष्यत्‌ जो विवाहादि के अवसर पर होता है। सारांश यह है कि वैदिक धर्म केवल परलोक की ही शिक्षा नहीं देता, प्रत्युत वह इस लोक को भी व्यवहार की सिद्धि के लिए किसी भी तरह उपेक्षणीय नहीं मानता।

प्राचीन समय मैं लोग बहुत अधिक शक्तिशाली होते थे। तथा राजा-महाराजा अपनी सेना मेंकई शक्ति लोगो को रखते थे। व आसपास के राज्यों में शक्तिशाली लोगो का बड़ा-चढ़ाकर प्रचार करते थे। ताकि पडोसी राज्यों पर अपना दबदबा कायम रख सके।

परंतु आस-पडोसी राज्य भी कहा कम थे। वे भी बड़ा-चढ़ाकर अपने शक्ति लोगो का प्रचार करते थे। कौन ज्यादा शक्तिशाली है इस बात का फैसला जब तक मुकाबला नहीं हो कैसे बता सकते है। कौन अधिक शक्तिशाली है, यह पता लगाने के लिए आसपास के कई राज्य मिलकर प्रतियोगिता आयोजित करने लगे। बस यही से ही खेल प्रतियोगिताओं की शुरुआत हुईं। ओलम्पिक खेलो की शुरुआत भी इसी तरह से हुई थी।

प्राचीन समय मैं दौड़, मुक्केबाजी, कुश्ती, तलवारबाजी, भला फेंकना, तीरंदाजी, घुड़दौड़ और रथों की दौड़ आदि कई तरह के खेलो का आयोजन होता था। धीरे-धीरे कई देशो से नए-नए खेल व खिलाडी जुड़ने लगे व ओलम्पिक की शुरुआत हुई।

प्राचीन ओलंपिक खेलों का आयोजन 1200 साल पूर्व योद्धा-खिलाड़ियों के बीच हुआ था। हालांकि ओलंपिक का पहला आधिकारिक आयोजन 1776 ईसा पूर्व में हुआ था, जबकि आखिरी बार इसका आयोजन 394 ईस्वी में हुआ। इसके बाद रोम के सम्राट थियोडोसिस ने इसे मूर्तिपूजा वाला उत्सव करार देकर इस पर प्रतिबंध लगा दिया गया।

आधुनिक ओलंपिक खेलों का आयोजन 896 में पहली बार ग्रीस की राजधानी एथैंस में हुआ। आज ओलम्पिक अंतर्राष्ट्रीय खेल जगत की सबसे बड़ी प्रतियोगिता है। ओलम्पिक खेलो का आयोजन हर चार साल में किया जाता है।

(ग) साहित्य और पत्रकारिता का संबंध

Answer:-

पत्रकारिता आधुनिक सभ्यता का एक प्रमुख व्यवसाय है, जिसमें समाचारों का एकत्रीकरण, 'लिखना, जानकारी एकत्रित करके पहुँचाना, सम्पादित करना और सम्यक प्रस्तुतीकरण आदि सम्मिलित हैं।

आज के युग में पत्रकारिता के भी अनेक माध्यम हो गये हैं; जैसे - अखबार, पत्रिकायें, रेडियो, दूरदर्शन, वेब-पत्रकारिता आदि। बदलते वक्‍त के साथ बाजारवाद और पत्रकारिता के अन्तर्सम्बन्धों ने पत्रकारिता की विषय-वस्तु तथा प्रस्तुति शैली मैं व्यापक परिवर्तन किए।

वर्तमान में भारतीय पत्रकारिता सरकारी गजट या नोटिफ़िकेशन बनकर रह गई है। लगभग सभी मिडिया संस्थान और चैनल दिन रात सरकार का गुणगान करते हैं। इक्कीसवीं सदी मैं दुनिया विज्ञान और टेक्नोलॉजी पर बात कर रही है परन्तु भारतीय मीडिया धर्म, जातिवाद, मन्दिर मस्जिद की तथाकथित राजनीति से आगे नहीं बढ़ पा रही हैं।

इस तरह की पत्रकारिता भारतीय समाज में अन्धविश्वास, धार्मिक उन्माद, सामाजिक विघटन ही पैदा करेगी। वर्तमान समय मैं मिडिया की नजरों में सेक्युलर, उदारवादी या संविधानवादी होना स्वयं में एक गाली हो गया है।



'पण्डित जवाहर लाल नेहरू, सरदार वल्लभ भाई पटेल, सुभाष चन्द्र बोस और मोलाना आजाद के सपनों का भारत वाकई में बहुत खुबसूरत ओर खुशहाल हैं ओर इस भारत को हम इस तरह अन्धविश्वास, तथाकथित धार्मिक उन्माद ओर जड़ता की ओर नहीं जाने देगे।

सामाजिक सरोकारों तथा सार्वजनिक हित से जुड़कर ही पत्रकारिता सार्थक बनती है। सामाजिक सरोकारों को व्यवस्था की दहलीज तक पहुँचाने और प्रशासन की जनहितकारी नीतियों तथा योजनाआ को समाज के सबसे निचले तबके तक ले जाने के दायित्व का निर्वाह ही सार्थक पउकारिता है।

पत्रकारिता को लोकतन्त्र का चौथा स्तम्भ भी कहा जाता है। पत्रकारिता ने लोकतन्त्र में यह महत्त्वपूर्ण स्थान अपने आप नहीं प्राप्त किया है बल्कि सामाजिक सरोकारों के प्रति पत्रकारिता के दायित्वों के महत्त्व को देखते हुए समाज ने ही दर्जा दिया है।

कोई भी लोकतन्त्र तभी सशक्त है जब पत्रकारिता सामाजिक सरोकारों के प्रति अपनी सार्थक भूमिका निभाती रहे। सार्थक पत्रकारिता का उद्देश्य ही यह होना चाहिए कि वह प्रशासन और समाज के बीच एक महत्त्वपूर्ण कड़ी की भूमिका अपनाये।

पत्रकारिता के इतिहास पर नजर डाले तो स्वतन्त्रता के पूर्व पत्रकारिता का मुख्य उद्देश्य स्वतन्त्रता प्राप्ति का लक्ष्य था। स्वतन्त्रता के लिए चले आंदोलन और स्वाधीनता संग्राम मैं पत्रकारिता ने अहम और सार्थक भूमिका निभाई। उस दौर में पत्रकारिता ने पूरे देश को एकता के सूत्र मैं पिरोने के साथ-साथ पूरे समाज को स्वाधीनता की प्राप्ति के लक्ष्य से जोड़े रखा।



इण्टरनेट और सूचना के आधिकार (आर-टी.आई.) ने आज की पत्रकारिता को बहुआयामी और अनन्त बना दिया है। आज कोई भी जानकारी पलक झपकते उपलब्ध की और कराई जा सकती है। मीडिया आज बहुत सशक्त, स्वतन्त्र और प्रभावकारी हो गया है। पत्रकारिता की पहुँच और आभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता का व्यापक इस्तेमाल आमतौर पर सामाजिक सरोकारों और भलाई से ही जुड़ा है, किनतु कभी कभार इसका दुरपयोग भी होने लगा है।

संचार क्रान्ति तथा सूचना के आधिकार के अलावा आर्थिक उदारीकरण ने पत्रकारिता के चेहरे को पूरी तरह बदलकर रख दिया है। विज्ञापनों से होनेवाली अथाह कमाई ने पत्रकारिता को काफी हद्द तक व्यावसायिक बना दिया है।

मीडिया का लक्ष्य आज आधिक से आधिक कमाई का हो चला है। मीडिया के इसी व्यावसायिक दृष्टिकोण का नतीजा है कि उसका ध्यान सामाजिक सरौकारों से कहीं भटक गया है। मुद्दों पर आधारित पत्रकारिता के बजाय आज इन्फोटेमेंट ही मीडिया की सुर्खियों में रहता है।

इण्टरनेट की व्यापकता और उस तक सार्वजनिक पहुँच के कारण उसका दुष्प्रयोग भी होने 'लगा है। इंटरनेट के उपयोगकर्ता निजी भड़ास निकालने और अन्तर्गत तथा आपत्तिजनक प्रलाप करने के लिए इस उपयोगी साधन का गलत इस्तेमाल करने लगे हैं। यही कारण है कि यदा-कदा मीडिया के इन बहुपयोगी साधनों पर अंकुश लगाने की बहस भी छिड़ जाती है। 'गनीमत है कि यह बहस सुझावों और शिकायतों तक ही सीमित रहती है।

उस पर अमल की नौबत नहीं आने पाती। लोकतन्त्र के हित मैं यही है कि जहाँ तक हो सके पत्रकारिता को स्वतन्त्र और निर्बाध रहने दिया जाए, और पत्रकारिता का अपना हित इसमें है 'किवह आभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता का उपयोग समाज और सामाजिक सरोकारोंके प्रति अपने दायित्वों के ईमानदार निर्वहन के लिए करती रहे। 

भाग-2

3. समकालीन साहित्यिक पत्रकारिता की पृष्ठभूमि को समझाइए ।

Answer :-

पत्रकारिता आधुनिक सभ्यता का एक प्रमुख व्यवसाय है, जिसमें समाचारों का एकत्रीकरण, 'लिखना, जानकारी एकत्रित करके पहुँचाना, सम्पादित करना और सम्यक प्रस्तुतीकरण आदि सम्मिलित हैं।

आज के युग में पत्रकारिता के भी अनेक माध्यम हो गये हैं; जैसे - अखबार, पत्रिकायें, रेडियो, दूरदर्शन, वेब-पत्रकारिता आदि। बदलते वक्‍त के साथ बाजारवाद और पत्रकारिता के अन्तर्सम्बन्धों ने पत्रकारिता की विषय-वस्तु तथा प्रस्तुति शैली में व्यापक परिवर्तन किए।

वर्तमान में भारतीय पत्रकारिता सरकारी गजट या नोटिफिकेशन बनकर रह गई है। लगभग सभी मिडिया संस्थान और चैनल दिन रात सरकार का गुणगान करते हैं। इक्कीसवीं सदी में दुनिया विज्ञान और टेक्नोलॉजी पर बात कर रही है परन्तु भारतीय मीडिया धर्म, जातिवाद, मन्दिर मस्जिद की तथाकथित राजनीति से आगे नहीं बढ़ पा रही हैं।

इस तरह की पत्रकारिता भारतीय समाज में अन्धविश्वास, धार्मिक उन्माद, सामाजिक विघटन ही पैदा करेगी। वर्तमान समय में मिडिया की नजरों में सेक्युलर, उदारवादी या संविधानवादी होना स्वयं में एक गाली हो गया है।

'पण्डित जवाहर लाल नेहरू, सरदार वल्लभ भाई पटेल, सुभाष चन्द्र बोस ओर मोलाना आजाद के सपनों का भारत वाकई मेंबहुत खुबसूरत ओर खुशहाल हैं ओर इस भारत को हम इस तरह अन्धविश्वास, तथाकथित धार्मिक उन्माद ओर जड़ता की और नहीं जाने देगे।

पत्रकारिता शब्द अंग्रेजी के "जर्नलिज़्म" का हिन्दी रूपान्तर है। शब्दार्थ की दृष्टि से "जर्नलिज़्म" शब्द 'जर्नल' से निर्मित है और इसका आशय है 'दैनिक'। अर्थात जिसमें दैनिक कार्यों व सरकारी बैठकों का विवरण हो।



आज जर्नल शब्द 'मैगजीन' का द्योतक हो चला है। यानी, दैनिक, दैनिक समाचार-पत्र या दूसरे प्रकाशन, कोई सर्वाधिक प्रकाशन जिसमें किसी विशिष्ट क्षेत्र के समाचार हो। ( डॉ. हरिमोहन एवं हरिशंकर जोशी- खोजी पत्रकारिता, तक्षशिला प्रकाशन )

पत्रकारिता लोकतन्त्र का अविभाज्य अंग है। प्रतिपल परिवर्तित होनेवाले जीवन और जगत का दर्शन पत्रकारिता द्वारा ही सम्भव है। परिस्थितियों के अध्ययन, चिन्तन-मनन और आत्माभिव्यक्ति की प्रवृत्ति और दूसरों का कल्याण अर्थात्‌ लोकमंगल की भावना ने ही पत्रकारिता को जन्म दिया।

सामाजिक सरोकारों तथा सार्वजनिक हित से जुड़कर ही पत्रकारिता सार्थक बनती है।

सामाजिक सरोकारों को व्यवस्था की दहलीज तक पहुँचाने और प्रशासन की जनहितकारी नीतियों तथा योजना को समाज के सबसे निचले तबके तक ले जाने के दायित्व का निर्वाह ही सार्थक पत्रकारिता है।

पत्रकारिता को लोकतन्त्र का चौथा स्तम्भ भी कहा जाता है। पत्रकारिता ने लोकतन्त्र में यह महत्त्वपूर्ण स्थान अपने आप नहीं प्राप्त किया है बल्कि सामाजिक सरोकारों के प्रति पत्रकारिता के दायित्वों के महत्त्व को देखते हुए समाज ने ही दर्जा दिया है।

कोई भी लोकतन्त्र तभी सशक्त है जब पत्रकारिता सामाजिक सरोकारों के प्रति अपनी सार्थक भूमिका निभाती रहे। सार्थक पत्रकारिता का उद्देश्य ही यह होना चाहिए कि वह प्रशासन और समाज के बीच एक महत्त्वपूर्ण कड़ी की भूमिका अपनाये।

पत्रकारिता के इतिहास पर नजर डाले तो स्वतन्त्रता के पूर्व पत्रकारिता का मुख्य उद्देश्य स्वतन्त्रता फराप्ति का लक्ष्य था। स्वतन्त्रता के लिए चले आंदोलन और स्वाधीनता संग्राम मैं पत्रकारिता ने अहम और सार्थक भूमिका निभाई। उस दौर मैं पत्रकारिता ने पूरे देश को एकता के सूत्र में पिरोने के साथ-साथ पूरे समाज को स्वाधीनता की प्राप्ति के लक्ष्य से जोड़े रखा।



इण्टरनेट और सूचना के आधिकार (आर.टी.आई.) ने आज की पत्रकारिता को बहुआयामी और अनन्त बना दिया है। आज कोई भी जानकारी पलक झपकते उपलब्ध की और कराई जा सकती है।

मीडिया आज बहुत सशक्त, स्वतन्त्र और प्रभावकारी हो गया है। पत्रकारिता की पहुँच और आभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता का व्यापक इस्तेमाल आमतौर पर सामाजिक सरोकारों और भलाई से ही जुड़ा है, किनतु कभी ककार इसका दुरपयोग भी होने लगा है।

संचार क्रान्ति तथा सूचना के आधिकार के अलावा आर्थिक उदारीकरण ने पत्रकारिता के चेहरे को पूरी तरह बदलकर रख दिया है। विज्ञापनों से होनेवाली अथाह कमाई ने पत्रकारिता को काफी हद्द तक व्यावसायिक बना दिया है।

मीडिया का लक्ष्य आज आधिक से आधिक कमाई का हो चला है। मीडिया के इसी व्यावसायिक दृष्टिकोए। का नतीजा है कि उसका ध्यान सामाजिक सरौकारों से कहीं भटक गया है। मुद्दों पर आधारित पत्रकारिता के बजाय आज इन्फोटेमेंट ही मीडिया की सुर्खियों में रहता है।

इण्टरनेट की व्यापकता और उस तक सार्वजनिक पहुँच के कारण उसका दुष्प्रयोग भी होने लगा है। इंटरनेट के उपयोगकर्ता निजी भड़ास निकालने और अन्तर्गत तथा आपत्तिजनक प्रलाप करने के लिए इस उपयोगी साधन का गलत इस्तेमाल करने लगे हैं। यही कारण है कि यदा-कदा मीडिया के इन बहुपयोगी साधनों पर अंकुश लगाने की बहस भी छिड़ जाती है।

गनीमत है कि यह बहस सुझावों और शिकायतों तक ही सीमित रहती है। उस पर अमल की नौबत नहीं आने पाती। लोकतन्त्र के हित में यही है कि जहाँ तक हो सके पत्रकारिता को स्वतन्त्र और निर्बाध रहने दिया जाए, और पत्रकारिता का अपना हित इसमें है कि वह आभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता का उपयोग समाज और सामाजिक सरोकारोंके प्रति अपने दायित्वों के ईमानदार निर्वहन के लिए करती रहे।

4. साहित्यिक पत्रकारिता में अनुवाद का महत्व प्रतिपादित कीजिए ।

Answer ;-

किसी भाषा में कही या लिखी गयी बात का किसी दूसरी भाषा में सार्थक परिवर्तन अनुवाद कहलाता है। अनुवाद का कार्य बहुत पुराने समय से होता आया है।

संस्कृत में 'अनुवाद' शब्द का उपयोग शिष्य द्वारा गुरु की बात के दुहराए जाने, पुनः कथन, समर्थन के लिए प्रयुक्त कथन, आवृत्ति जैसे कई संदर्भो में किया गया है। संस्कृत के 'वद्‌' धातु से 'अनुवाद' शब्द का निर्माण हुआ है। 'वद्‌' का अर्थ है बोलना। 'वद' धातु में "अ' प्रत्यय जोड़ देने पर भाववाचक संज्ञा में इसका परिवर्तित रूप है 'वाद' जिसका अर्थ है- "कहने की क्रिया' या 'कही हुई बात'।

'वाद' में 'अनु' उपसर्ग उपसर्ग जोड़कर 'अनुवाद' शब्द बना है, जिसका अर्थ है, प्राप्त कथन को पुनः कहना। इसका प्रयोग पहली बार मोनियर विलियम्स ने अँग्रेजी शब्द टांसलेशन के पर्याय के रूप में किया। इसके बाद ही 'अनुवाद' शब्द का प्रयोग एक भाषा में किसी के द्वारा प्रस्तुत की गई सामग्री की दूसरी भाषा में पुनः प्रस्तुति के संदर्भ में किया गया।

वास्तव में अनुवाद भाषा के इन्द्रधनुषी रूप की पहचान का समर्थतम मार्ग है। अनुवाद की अनिवार्यता को किसी भाषा की समृद्धि का शोर मचा कर टाला नहीं जा सकता और न अनुवाद की बहुकोणीय उपयोगिता से इन्कार किया जा सकता है। ज्त्‌।ठैस्‌। जप्व्छ के पर्यायस्वरूप “अनुवाद'शब्द का स्वीकृत अर्थ है, एक भाषा की विचार सामग्री को दूसरी भाषा में पहुँचना। अनुवाद के लिए हिंदी में 'उल्था' का प्रचलन भी है।

किसी भाषा में अभिव्यक्त विचारों को दूसरी भाषा में यथावत्‌ प्रस्तुत करना अनुवाद है। इस विशेष अर्थ में ही 'अनुवाद' शब्द का अभिप्राय सुनिश्चित है। जिस भाषा से अनुवाद किया जाता हैं, वह मूलभाषा या स्रोतभाषा है। उससे जिस नई भाषा में अनुवाद करना है, वह 'प्रस्तुत भाषा' या 'लक्ष्य भाषा' है। इस तरह, स्रोत भाषा में प्रस्तुत भाव या विचार को बिना किसी परिवर्तन के लक्ष्यभाषा में प्रस्तुत करना ही अनुवाद है।

अनुवाद का कार्य स्रोतभाषा के पाठ को अर्थपूर्ण रूप से लक्ष्यभाषा में अनूदित करता है। अनुवाद का कार्य अन्ततोगत्वा एक ही व्यक्ति करता है । एकाकी अनुवाद में तो अनुवादक अकेला होता ही है, सहयोगात्मक अनुवाद में भी, अन्तिम भाग में, सम्पादन का कामअनुवादक को अकेले करना होता है।

अतः अनुवादक के साथ अनेक दायित्व जुड़ जाते हैं और कार्य के सफल निष्पादन मैं उससे अनेक अपेक्षाएँ रहती हैं। भाषा ज्ञान, विषय ज्ञान, अभिव्यक्ति कौशल, व्यक्तिगत गुण आदि की दृष्टि से अनुवादक से होने वाली अपेक्षाओं पर विचार करना होता है ।

5. कल्पना पत्रिका का प्रदेय क्या है, विस्तार से लिखिए।

Answer :-

हिन्दी पत्रकारिता की शुरुआत बंगाल से हुई और इसका श्रेय राजा राममोहन राय को दिया जाता है। राजा राममोहन राय ने ही सबसे पहले प्रेस को सामाजिक उद्देश्य से जोड़ा। भारतीयों के सामाजिक, धार्मिक, राजनैतिक, आर्थिक हितों का समर्थन किया।

समाज में व्याप्त अंधविश्वास और कुरीतियों पर प्रहार किये और अपने पत्रों के जरिए जनता में जागरूकता पैदा की। राय ने कई पत्र शुरू किये। जिसमें अहम हैं-साल 1780 मैं प्रकाशित "बंगाल गजट'। बंगाल गजट भारतीय भाषा का पहला समाचार पत्र है। इस समाचार पत्र के संपादक गंगाधर भट्टाचार्य थे।

इसके अलावा राजा राममोहन राय ने मिरातुल, संवाद कौंमुदी, बंगाल हैराल्ड पत्र भी निकाले और लोगों में चेतना फैलाई। 30 मई 826 को कलकत्ता से पंडित जुगल किशोर शुक्ल के संपादन में निकलने वाले 'उदन्त मार्तण्ड' को हिंदी का पहला समाचार पत्र माना जाता है।

इस समय इन गतिविधियों का चूँकि कलकत्ता केनद्र था इसलिए यहाँ पर सबसे महतवपूर्ण पत्र-पत्रिकाएँ - उददंड मार्तड, बंगदूत, प्रजामित्र मार्तड तथा समाचार सुधा वर्षण आदि का प्रकाशन हुआ। प्रारमभ के पाँचों सापताहिक पत्र थे एवं सुधा वर्षण दैनिक पत्र था। इनका प्रकाशन दो-तीन भाषाओं के माध्यम से होता था।



'सुधाकर' और “बनारस अखबार' सापृताहिक पत्र थे जो काशी से प्रकाशित होते थे। 'प्रजाहितैषी' एवं बुद्धि प्रकाश का प्रकाशन आगरा से होता था। 'तत्‌वबोधिनी' पत्रिका सापृताहिक थी और इसका प्रकाशन बरेली से होता था। 'मालवा' सापृताहिक मालवा से एवं 'वृतान्‌त' जममू से तथा “ज्ञान प्रदायिनी पत्रिका' लाहौर से प्रकाशित होते थे।दोनों मासिक पत्र थे। इन पत्र-पत्रिकाओं का प्रमुख उद्देश्य एवं सन्देश जनता में सुधार व जागरण की पवित्र भावनाओं को उत्पन्‌न कर अनुयाय एवं अत्याचार का प्रतिरोध/विरोध करना था। हालॉकि इनमें प्रयुकत भाषा (हिनदी) बहुत ही साधारण किसम की (टूटी-फूटी हिनदी) हुआ करती थी। सन्‌ 868 ई. में भारतेंदु हरिश्चंद्र ने साहित्यिक पत्रिका कवि वचन सुधा का प्रवर्तन किया। और यहीं से हिन्दी पत्रिकाओं के प्रकाशन में तीव्रता आई।आलोचना, हिंदी, वसुधा, अक्षरपर्व, वागर्थ, आकल्प, साहित्यवैभव, परिवेश, कथा, संचेतना, संप्रेषण, कालदीर्घा, दायित्वबो ध, अभिनव कदम, हंस, बया आदि वे पत्रिकाएँ हैं, जो हिंदी भाषा की समृद्धि का प्रतीक हैं।

आलोचना हिन्दी साहित्य जगत्‌ मैं मूलतः आलोचना केंद्रित पत्रिकाओं में सर्वप्रथम, सर्वाधिक लंबे समय तक प्रकाशित एवं शीर्ष स्थानीय पत्रिका है। इसका प्रकाशन राजकमल प्रकाशन प्राइवेट लिमिटेड के द्वारा होता है। बीच में दो बार प्रकाशन-क्रम भंग होने के बाद 'फिलहाल इस पत्रिका के प्रकाशन का तीसरा दौर जारी है। विभिन्‍न विचारधाराओं के श्रेष्ठ 'विटयानों ने समय-समय पर इसका संपादन किया है।

डॉ० नामवर सिंह सबसे अधिक समय तक इस के संपादन से जुड़े रहे हैं। अधिकांशतः सारगर्भित एवं विचारोत्तेजक आलेखों के प्रकाशन, विभिन्‍न समसामयिक मुद्दों में प्रभावकारी हस्तक्षेप तथा अनेक महत्वपूर्ण विशेषांकों के प्रकाशन के द्वारा इस पत्रिका ने संपूर्ण हिंदी साहित्य जगत्‌ में अपनी विशिष्ट पहचान बनायी है।

6. निम्नलिखित विषयों पर टिप्पणी लिखिए:

(क) भारत मित्र का महत्त्व

Answer :-

भारतमित्र सन १८७८ में कलकता से प्रकाशित एक हिन्दी समाचार पत्र था। भारत मित्र कलकत्ता (वर्तमान कोलकाता) से प्रकाशित होने वाला समाचार पत्र था। भारतमित्र के पहले वैतनिक सम्पादक पण्डित हरमुकुन्द शास्त्री थे, जिन्हें लाहौर से बुलाया गया था। यह पत्र लम्बे समय (37 वर्षों) तक निरन्तर चलता रहा।

राजा, प्रजा, राज्य-व्यवस्था, वाणिज्य, भाषा और सबके ऊपर देशहित की चिंता-चेतना जगानेवाला 'भारतमित्र' एक तेजस्वी राजनीतिक पत्र के रूप में चर्चित और विख्यात हुआ। 1899 ई. में बालमुकुन्द गुप्त इसके सम्पादक हुए और 8 सितंबर,1907 को अपने गॉव गुड़ियानी(हरियाणा) में जाते हुए दिल्‍ली रेलवे स्टेशन के सामने स्थित एक धर्मशाला में उनकी असमय मृत्यु तक इस अख़बार के संपादक रहे। भारतमित्र को कचहरियों मैं हिन्दी प्रवेश आन्दोलन का मुखपत्र कहा जाता है।

'भारतमित्र' का स्वदेशी के प्रति विशेष आग्रह था। समग्र जातीय चेतना का विकास इसका लक्ष्य था। स्मरणीय है, समाचार-पत्र की स्वतंत्रता को प्रतिबंधित करनेवाला वर्नाक्युलर प्रेस ऐक्ट 4 मार्च, 1878 ई. को लागू हुआ था। उस संदर्भ में 7 मार्च, 1878 के 'भारतमित्र' की संपादकीय टिप्पणी की भाषा विपत्ति को आहूत करने वाली भाषा है।

उस समय राजा तक प्रजा के कष्ट तथा नाना प्रकार के अभाव की जानकारी पहुँचाने वाले सशक्त अभियोग-माध्यम-पत्रों की आजादी की माँग सरकारी दृष्टि से कदाचित्‌ सबसे बड़ा अपराध था, किंतु राष्ट्रवाद और देश-प्रीति का यही तकाजा था।

'भारतमित्र' संपादक के सामने ब्रिटिश सरकार की नीति स्पष्ट थी और उसके प्रतिरोध मैं जागरूक कौशल से आबोहवा तैयार करनी थी। शायद यही कारण है कि 'भारतमित्र' की संपादकीय टिप्पणी में राजभक्ति का मूलम्मा भी दिखाई पड़ता है।

(ख) स्वदेश की पत्रकारिता

Answer:-

हिन्दी पत्रकारिता की कहानी भारतीय राष्ट्रीयता की कहानी है। हिन्दी पत्रकारिता के आदि उन्नायक जातीय चेतना, युगबोध और अपने महत्‌ दायित्व के प्रति पूर्ण सचेत थे। कदाचित्‌ इसलिए विदेशी सरकार की दमन-नीति का उन्हें शिकार होना पड़ा था, उसके नृशंस व्यवहार की यातना झेलनी पड़ी थी।

उन्नीसवीं शताब्दी मैं हिन्दी गद्य-निर्माण की चेष्टा और हिन्दी-प्रचार आन्दोलन अत्यन्त प्रतिकूल परिस्थितियों में भयंकर कठिनाइयों का सामना करते हुए भी कितना तेज और पुष्ट था इसका साक्ष्य 'भारतमित्र' (सन्‌ 1878 ई, मैं) 'सार सुधानिधि' (सन्‌ 1879 ई.) और 'उचित वक्‍ता' (सन्‌ 1880 ई.) के जीर्ण पृष्ठों पर मुखर है।

भारत मैं प्रकाशित होने वाला पहला हिंदी भाषा का अखबार, उदंत मार्तड (द राइजिंग सन), 30 मई 1826 को शुरू हुआ। इस दिन को "हिंदी पत्रकारिता दिवस" के रूप में मनाया जाता है, क्योंकि इसने हिंदी भाषा में पत्रकारिता की शुरुआत को चिहिनत किया था।

वर्तमान मैं हिन्दी पत्रकारिता ने अंग्रेजी पत्रकारिता के दबदबे को खत्म कर दिया है। पहले देश- विदेश मैं अंग्रेजी पत्रकारिता का दबदबा था लेकिन आज हिन्दी भाषा का झण्डा चहुंदिश लहरा रहा है। 30 मई को 'हिन्दी पत्रकारिता दिवस' के रूप में मनाया जाता है।



भारतवर्ष में आधुनिक ढंग की पत्रकारिता का जन्म अठारहर्वीं शताब्दी के चतुर्थ चरण में कलकत्ता, बंबई और मद्रास में हुआ। 1780 ई. में प्रकाशित हिके का “कलकत्ता गज़ट" कदाचित्‌ इस ओर पहला प्रयत्न था। हिंदी के पहले पत्र उदंत मार्तण्ड (1826) के प्रकाशित होने 'तक इन नगरों की ऐंग्लोइंडियन अंग्रेजी पत्रकारिता काफी विकसित हो गई थी।

इन अंतिम वर्षों में फारसी भाषा में भी पत्रकारिता का जन्म हो चुका था। 8वीं शताब्दी के फारसी पत्र कदाचित्‌ हस्तलिखित पत्र थे। 80 मैं 'हिंदुस्थान इंटेलिजेंस ओरिऐंटल ऐंथॉलॉजी' नाम का जो संकलन प्रकाशित हुआ उसमें उत्तर भारत के कितने ही "अखबारों" के उद्धरण थे। 80 में मौलवी इकराम अली ने कलकत्ता से लीथो पत्र "हिंदोस्तानी" प्रकाशित करना आरंभ किया।

1876 में गंगाकिशोर भ्ट्टाचार्य ने "बंगाल गजट'" का प्रवर्तन किया। यह पहला बंगला पत्र था। बाद मैं श्रोरामपुर के पादरियों ने प्रसिद्ध प्रचारपत्र "समाचार दर्पण" को (27 मई 1818) जन्म 'दिया। इन प्रारंक्षिक पत्रों के बाद 1823 में हमें बैंगला भाषा के 'समाचारचंद्रिका' और "संवाद कौमुदी", फारसी उर्दू के "जामे जहाँनुमा" और "शमसुल अखबार" तथा गुजराती के "मुंबई समाचार" के दर्शन होते हैं।

यह स्पष्ट है कि हिंदी पत्रकारिता बहुत बाद की चीज नहीं है। दिल्‍ली का "उर्दू अखबार" (1833) और मराठी का "दिग्दर्शन" (1837) हिंदी के पहले पत्र "उदंत मार्तड" (1826) के बाद ही आए। "उदंत मार्तड" के संपादक पंडित जुगलकिशोर थे। यह साप्ताहिक पत्र था। पत्र की भाषा पछाँही हिंदी रहती थी, जिसे पत्र के संपादकों ने "मध्यदेशीय भाषा" कहा है। 

भाग-2

7. सरस्वती की साहित्यिक पत्रकारिता के उदभव एवं विकास पर प्रकाश डालिए ।

Answer:-

हिन्दी पत्रकारिता की कहानी भारतीय राष्ट्रीयता की कहानी है। हिन्दी पत्रकारिता के आदि उन्नायक जातीय चेतना, युगबोध और अपने महत्‌ दायित्व के प्रति पूर्ण सचेत थे। कदाचित्‌ इसलिए विदेशी सरकार की दमन-नीति का उन्हें शिकार होना पड़ा था, उसके नृशंस व्यवहार की यातना इलनी पड़ी थी।

उनन्‍नीसवीं शताब्दी में हिन्दी गद्य-निर्माण की चेष्टा और हिन्दी-प्रचार आन्दोलन अत्यन्त प्रतिकूल परिस्थितियों में भयंकर कठिनाइयों का सामना करते हुए भी कितना तेज और पुष्ट था इसका साक्ष्य 'भारतमित्र' (सन्‌ 1878 ई, में) 'सार सुधानिधि' (सन्‌ 1879 ई.) और 'उचित वक्ता (सन्‌ 1880 ई.) के जीर्ण पृष्ठों पर मुखर है।

भारत में प्रकाशित होने वाला पहला हिंदी भाषा का अखबार, उदंत मार्तड (द राइजिंग सन), 30 मई 1826 को शुरू हुआ। इस दिन को "हिंदी पत्रकारिता दिवस" के रूप में मनाया जाता है, क्योंकि टसने हिंदी भाषा में पत्रकारिता की शुरुआत को चिहिनत किया था।

वर्तमान मैं हिन्दी पत्रकारिता ने अंग्रेजी पत्रकारिता के दबदबे को खत्म कर दिया है। पहले देश- विदेश में अंग्रेजी पत्रकारिता का दबदबा था लेकिन आज हिन्दी भाषा का झण्डा चहूंदिश लहरा रहा है। ३० मई को 'हिन्दी पत्रकारिता दिवस' के रूप में मनाया जाता है। हम 1826 ई. से 1873 ई. तक को हम हिंदी पत्रकारिता का पहला चरण कह सकते हैं। 1873 ई. में भारतेन्दु ने "हरिश्चंद्र मैगजीन" की स्थापना की। एक वर्ष बाद यह पत्र "हरिश्चंद्र चंद्रिका" नाम से प्रसिद्ध हुआ।



वैसे भारतेन्दु का "कविवचन सुधा" पत्र 1867 में ही सामने आ गया था और उसने पत्रकारिता के विकास मैं महत्वपूर्ण भाग लिया था; परंतु नई भाषाशैली का प्रवर्तन 1873 में "हरिश्चंद्र मैगजीन" से ही हुआ। इस बीच के अधिकांश पत्र प्रयोग मात्र कहे जा सकते हैं और उनके पीछे पत्रकला का ज्ञान अथवा नए विचारों के प्रचार की भावना नहीं है।

इन पत्रों में से कुछ मासिक थे, कुछ साप्ताहिक। दैनिक पत्र केवल एक था "समाचार सुधावर्षण" जो द्विभाषीय (बंगला हिंदी) था और कलकत्ता से प्रकाशित होता था। यह दैनिक पत्र 1871 तक चलता रहा। अधिकांश पत्र आगरा से प्रकाशित होते थे जो उन दिनों एक बड़ा शिक्षाकेंद्र था और विद्यार्थीसमाज की आवश्यकताओं की पूर्ति करते थे।

शेष ब्रहमसमाज, सनातन धर्म और मिशनरियों के प्रचार कार्य से संबंधित थे। बहुत से पत्र दुविभाषीय (हिंदी उर्दू) थे और कुछ तो पंचभाषीय तक थे। इससे भी पत्रकारिता की अपरिपक्व दशा ही सूचित होती है।

हिंदीप्रदेश के प्रारंभिक पत्रों में "बनारस अखबार" (1845) काफी प्रभावशाली था और उसी की भाषानीति के विरोध में 1850 में तारामोहन मैत्र ने काशी से साप्ताहिक "सुधाकर" और 1855 में राजा लक्ष्मणसिंह ने आगरा से "प्रजाहितैषी" का प्रकाशन आरंभ किया था। राजा शिवप्रसाद का "बनारस अखबार" उर्दू आषाशैली को अपनाता था तो ये दोनों पत्र पंडिताऊ 'तत्समप्रधान शैली की ओर झुकते थे। इस प्रकार हम देखते हैं कि 1867 से पहले भाषाशैली के संबंध में हिंदी पत्रकार किसी निश्चित शैली का अनुसरण नहीं कर सके थे।

इस वर्ष 'कवि वचनसुधा' का प्रकाशन हुआ और एक तरह से हम उसे पहला महत्वपूर्ण पत्र कह सकते हैं। पहले यह मासिक था, फिर पाक्षिक हुआ और अंत में साप्ताहिक। भारतेन्दु के बहुविध व्यक्तित्व का प्रकाशन इस पत्र के माध्यम से हुआ, परंतु सच तो यह है कि "हरिश्चंद्र मैगजीन" के प्रकाशन (1873) तक वे भी भाषाशैली और विचारों के क्षेत्र में मार्ग ही खोजते दिखाई देते हैं।

8. धर्मयुग की साहित्यिक पत्रकारिता की विशेषताएँ लिखिए।

Answer :-

पत्रकारिता आधुनिक सभ्यता का एक प्रमुख व्यवसाय है, जिसमें समाचारों का एकत्रीकरण, लिखना, जानकारी एकत्रित करके पहुँचाना, सम्पादित करना और सम्यक प्रस्तुतीकरण आदि सम्मिलित हैं।

आज के युग मैं पत्रकारिता के भी अनेक माध्यम हो गये हैं; जैसे - अखबार, पत्रिकायें, रेडियो, दूरदर्शन, वेब-पत्रकारिता आदि। बदलते वक्‍त के साथ बाजारवाद और पत्रकारिता के अन्तर्सम्बन्धों ने पत्रकारिता की विषय-वस्तु तथा प्रस्तुति शैली में व्यापक परिवर्तन किए।

वर्तमान में भारतीय पत्रकारिता सरकारी गजट या नोटिफ़िकेशन बनकर रह गई है। लगभग सभी मिडिया संस्थान और चैनल दिन रात सरकार का गुणगान करते हैं। इक्कीसवीं सदी में दुनिया विज्ञान और टेक्नोलॉजी पर बात कर रही है परन्तु भारतीय मीडिया धर्म, जातिवाद, मन्दिर मस्जिद की तथाकथित राजनीति से आगे नहीं बढ़ पा रही हैं।

इस तरह की पत्रकारिता भारतीय समाज मैं अन्धविश्वास, धार्मिक उन्माद, सामाजिक विघटन ही पैदा करेगी। वर्तमान समय मैं मिडिया की नजरों में सेक्युलर, उदारवादी या. संविधानवादी होना स्वयं में एक गाली हो गया है।

पण्डित जवाहर लाल नेहरू, सरदार वल्लभ भाई पटेल, सुभाष चन्द्र बोस ओर मोलाना आजाद के सपनों का भारत वाकई में बहुत खुबसूरत ओर खुशहाल हैं ओर इस भारत को हम इस तरह अन्धविश्वास, तथाकथित धार्मिक उन्माद ओर जड़ता की ओर नहीं जाने देगे।



पत्रकारिता शब्द अंग्रेजी के "जर्नलिज़्म" का हिन्दी रूपान्तर है। शब्दार्थ की दृष्टि से "जर्नलिज़्म" शब्द 'जर्नल' से निर्मित है और इसका आशय है 'दैनिक'। अर्थात जिसमें दैनिक कार्यों व सरकारी बैठकों का विवरण हो। आज जर्नल शब्द 'मैगजीन' का द्योतक हो चला है। यानी, दैनिक, दैनिक समाचार-पत्र या दूसरे प्रकाशन, कोई सर्वाधिक प्रकाशन जिसमें किसी विशिष्ट क्षेत्र के समाचार हो। (डॉ. हरिमोहन एवं हरिशंकर जोशी- खोजी पत्रकारिता, तक्षशिला प्रकाशन)

पत्रकारिता लोकतन्त्र का अविभाज्य अंग है। प्रतिपल परिवर्तित होनेवाले जीवन और जगत का दर्शन पत्रकारिता द्वारा ही सम्भव है। परिस्थितियों के अध्ययन, चिन्तन-मनन और आत्माभिव्यक्ति की प्रवृत्ति और दूसरों का कल्याण अर्थात्‌ लोकमंगल की आवना ने ही पत्रकारिता को जन्म दिया।

सामाजिक सरोकारों तथा सार्वजनिक हित से जुड़कर ही पत्रकारिता सार्थक बनती है। सामाजिक सरोकारों को व्यवस्था की दहलीज तक पहुँचाने और प्रशासन की जनहितकारी नीतियों तथा योजना को समाज के सबसे निचले तबके तक ले जाने के दायित्व का निर्वाह ही सार्थक पत्रकारिता है।

पत्रकारिता को लोकतन्त्र का चौथा स्तम्भ भी कहा जाता है। पत्रकारिता ने लोकतन्त्र में यह महत्त्वपूर्ण स्थान अपने आप नहीं प्राप्त किया है बल्कि सामाजिक सरोकारों के प्रति पत्रकारिता के दायित्वों के महत्त्व को देखते हुए समाज ने ही दर्जा दिया है।

कोई भी लोकतन्त्र तभी सशक्त है जब पत्रकारिता सामाजिक सरोकारों के प्रति अपनी सार्थक भूमिका निभाती रहे। सार्थक पत्रकारिता का उद्देश्य ही यह होना चाहिए कि वह प्रशासन और समाज के बीच एक महत्त्वपूर्ण कड़ी की भूमिका अपनाये।

पत्रकारिता के इतिहास पर नजर डाले तो स्वतन्त्रता के पूर्व पत्रकारिता का मुख्य उद्देश्य स्वतन्त्रता प्राप्ति का लक्ष्य था। स्वतन्त्रता के लिए चले आंदोलन और स्वाधीनता संग्राम में पत्रकारिता ने अहम और सार्थक भूमिका निभाई। उस दौर मैं पत्रकारिता ने पूरे देश को एकता के सूत्र में पिरोने के साथ-साथ पूरे समाज को स्वाधीनता की प्राप्ति के लक्ष्य से जोड़े रखा।



इण्टरनेट और सूचना के आधिकार (आर.टी.आई.) ने आज की पत्रकारिता को बहुआयामी और अनन्त बना दिया है। आज कोई भी जानकारी पलक झपकते उपलब्ध की और कराई जा सकती है। मीडिया आज बहुत सशक्त, स्वतन्त्र और प्रभावकारी हो गया है। पत्रकारिता की पहुँच और आभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता का व्यापक इस्तेमाल आमतौर पर सामाजिक सरोकारों और भलाई से ही जुड़ा है, किनतु कभी कार इसका दुरपयोग भी होने लगा है।

संचार क्रान्ति तथा सूचना के आधिकार के अलावा आर्थिक उदारीकरण ने पत्रकारिता के चेहरे को पूरी तरह बदलकर रख दिया है। विज्ञापनों से होनेवाली अथाह कमाई ने पत्रकारिता को काफी हद्द तक व्यावसायिक बना दिया है।

मीडिया का लक्ष्य आज आधिक से आधिक कमाई का हो चला है। मीडिया के इसी व्यावसायिक दृष्टिकोण का नतीजा है कि उसका ध्यान सामाजिक सरोकारों से कहीं भटक गया है। मुद्दों पर आधारित पत्रकारिता के बजाय आज इन्फोटेमेंट ही मीडिया की सुर्खियों में रहता है।

इण्टरनेट की व्यापकता और उस तक सार्वजनिक पहुँच के कारण उसका दुष्प्रयोग भी होने लगा है। इंटरनेट के उपयोगकर्ता निजी भड़ास निकालने और अन्तर्गत तथा आपत्तिजनक प्रलाप करने के लिए इस उपयोगी साधन का गलत इस्तेमाल करने लगे हैं। यही कारण है कि यदा-कदा मीडिया के इन बहुपयोगी साधनों पर अंकुश लगाने की बहस भी छिड़ जाती है।

गनीमत है कि यह बहस सुझावों और शिकायतों तक ही सीमित रहती है। उस पर अमल की नौबत नहीं आने पाती। लोकतन्त्र के हित में यही है कि जहाँ तक हो सके पत्रकारिता को स्वतन्त्र और निर्बाध रहने दिया जाए, और पत्रकारिता का अपना हित इसमें है कि वह आभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता का उपयोग समाज और सामाजिक सरोकारोंके प्रति अपने दायित्वों के ईमानदार निर्वहन के लिए करती रहे।

9. निम्नलिखित विषयों पर टिप्पणी लिखिए: 

(क) साक्षात्कार

Answer :-

अैंटवार्ता यानी साक्षात्कार समाचार संकलन का एक प्रभावी तरीका है। इसका उपयोग विशिष्ट प्रकार के समाचारों के लिए विशेष रूप में प्रयोग किया जाता है। समाचार संकलन में यदि भेंटवार्ता के महत्व को नकारा दिया जाए तो समाचार पत्रों में घटनाओं कार्यक्रमों आदि का विवरण तथ्यों की गहराई से छानबीन से दूर ही रहे होगा।

ऊपरी तौर पर जो देखने या सुनने को आएगा उसके प्रस्तुतीकरण से पाठकों की जिज्ञासा शांतनहीं हो सकती। तथ्यों की तह में पहुंचने के लिए भेंटवार्ता आवश्यक है । इसकी विशेषता के कारण ही साक्षात्कार पत्रकारिता का अधिकतम एवं अंश भी कहा जाता है कोई भी व्यक्ति ऐसी सूचना या जानकारी जान सकता है।

लेकिन किसी को क्या जानकारी दी जाए किस तरह की जानकारी दी जाए सकता है इसके लिए जरूरी है कि फैक्ट्री में काम करने वाले मजदूर,बड़ी-बड़ी योजनाओं में काम करने वाले वैज्ञानिक आदि सभी के पास कुछ ना कुछ ऐसी जानकारी हो सकती है और जिसे प्राप्त किया जा सकता है।

साक्षात्कार के प्रकार आम व्यक्ति से साक्षात्कार चुनाव से संबंधित हत्या से संबंधित इत्यादि हो सकते हैं इसमें पड़ोस के व्यक्तियों या घटना स्थल पर उपस्थित लोगों से बातचीत की जाती है इस तरह के साक्षात्कार लेना काफी मुश्किल भी होता है क्योंकि किसी व्यक्ति से घटना के बारे में पूछताछ करने पर उसे संदेह में भी डाल सकता है आ सकता है यह कार्य रिपोर्टर का ही है कि वह उन व्यक्तियों का विश्वास जीतें इस तरह के साक्षात्कार का कोई मार्ग नहीं होता है परेशानियां उठानी पड़ती है असम बंध और बातें सुननी पड़ती है और यह सब 'रिपोर्टरों को सुनना और सहना पड़ता है ताकि उसके उद्देश्य की पूर्ति हो सके।



आकस्समिक साक्षात्कार इसे अंग्रेजी में कैजुअल इंटरव्यू भी कहते हैं और यह ज्यादातर अचानक होते हैं सामान्यतः यह पूर्व उद्देश्य विभिन्‍न होते हैं एक संवाददाता और समाचार स्रोत रास्ते में मिलकर बातें करते हैं और वह समाचार के रूप में या छात्र के रूप मैं प्रकाशित किए जाते हैं

संवाददाता और समाचार स्रोत कभी-कभी भोजन अथवा पार्टी के दौरान आकस्मिक रूप से बातों का मीनिंग करते हैं इस तरह की बातों में बिना किसी तैयारियों व दृष्टिकोण के ही बातचीत होती हैं इसी वार्ता से कभी-कभी एक काफी बड़ी स्टोरी मिल जाती है व्यक्तित्व साक्षात्कार- लोगों के बारे में लंबे विवरण फीचर लेखन के लिए इस तरह के साक्षात्कार किए जाते हैं

अखबारों में तो इस तरह के साक्षात्कार छपते हैं मगर ज्यादातर यह नजर आते हैं उदाहरण के तौर पर हम फिल्म नागिन में अभिनेताओं के साक्षात्कार पाते हैं इस तरह के साक्षात्कार में अपने स्रोत से काफी गहराई भरे सवाल पूछता है और यह सवाल उसके निजी जिंदगी के बारे में अथवा किसी विषय के बारे मैं होता है

कभी अखबार एक निश्चित स्थान पर साक्षात्कार को जगह देते हैं उदाहरण के तौर पर टाइम्स ऑफ इंडिया में ज्यादातर एडिटोरियल पेज पर नजर आते हैं उसी तरह दैनिक जागरण में भी 'एडिटोरियल पेज पर नजर आते हैं साक्षात्कार पूरी स्टोरी का एक हिस्सा भी होता है जो ब्लॉक में दिया जाता है यह काफी कम समय में आयोजित किया जाता है और इस तरह के साक्षात्कार का उद्देश्य संवाददाता द्वारा समाचार से ही संबंधित किन्ही महत्वपूर्ण निर्धारित प्रश्नों का उत्तर पाना होता है इस तरह के साक्षात्कार से संवाददाता न्यू स्टोरी के बारे में ज्यादा जानकारियां प्राप्त करते हैं और उसे अपनी स्टोरी में कोटेशन के रूप में भी इस्तेमाल करते हैं।

(ख) हंस

Answer:-

हंस अनैटिडाए कुल के जलपक्षियों के सिग्नसवंश के पक्षी होते हैं। वर्तमान विश्व में इसकी 6 जीवित जातियाँ हैं, हालांकि इसकी कई अन्य जातियाँ भी थीं जो विलुप्त हो चुकी हैं। हंस का बत्तख और कलहंस से जीववैज्ञानिक सम्बन्ध है, लेकिन हंस इन दोनों से आकार में बड़े और लम्बी गर्दन वाले होते हैं। नर और मादा हंस आमतौर पर जीवन-भर के लिए जोड़ा बनाते हैं।

अपनी सुंदरता और लम्बी यात्राओं के लिए हंसों को कई संस्कृतियों में महत्व मिला है। भारतीय साहित्य मैं इसे बहुत विवेकी पक्षी माना जाता है। और ऐसा विश्वास है कि यह नीर-क्षीर विवेक (पानी और दूध को अलग करने वाला विवेक) से युक्त है। यह विद्या की देवी सरस्वती का वाहन है। ऐसी मान्यता है कि यह मानसरोवर में रहते हैं। हंसों को आजीवन जोड़ा बनाने के लिए भी प्रेम-सम्बन्ध और विवाह का प्रतीक माना गया है।

हंस का प्रकाशन सन्‌ 1930ई० में बनारस से प्रारम्भ हुआ था। इसके सम्पादकमुंशी प्रेमचन्द थे। प्रेमचन्द के सम्पादकत्व में यह पत्रिका हिन्दी की प्रगति में अत्यन्त सहायक सिद्ध हुई। सन्‌ 1933 मैं प्रेमचन्द ने इसका काशी विशेषांक बड़े परिश्रम से निकाला। वे सन्‌ 1930 से लेकर 1936 तक इसके सम्पादक रहे।

उसके बाद जैनेन्द्र और प्रेमचंद की पत्नी शिवरानी देवी ने संयुक्त रूप से इसका सम्पादन प्रारम्भ किया। हंस के विशेषांकों मैं प्रेमचन्द स्मृति अंक, एकांकी नाटक अंक 1938, रेखाचित्र अंक, कहानी अंक, प्रगति अंक तथा शान्ति अंक विशेष रूप से उल्लेखनीय रहे। जैनेन्द्र और शितरानी देवी के बाद इसके सम्पादक शिवदान सिंह चौहान और श्रीपत राय उसके बाद अमृत राय और तत्पश्चात्‌ नरोत्तम नागर रहे।

बहुत दिनों बाद सन्‌ 1959 में हंस का एक वृहत्‌ संकलन सामने आया जिसमें बालकृष्ण राव और अमृत राय के संयुक्त सम्पादन में आधुनिक साहित्य एवं उससे सम्बन्धित नवीन मूल्यों पर विचार किया गया था।

(ग) कर्मवीर

Answer :-

योगनिष्ठ स्वामी कर्मवीर जी महाराज "महर्षि पतंजलि अंतर्राष्ट्रीय योग विद्यापीठ" के संस्थापक हैं। स्वामी कर्मवीर विश्व के प्रथम व्यक्ति हैं जिन्हें भारत के गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय, हरिद्वार द्वारा योग में मास्टर्स डिग्री से सम्मानित किया गया, उन्होंने आध्यात्मिकता और सत्य की खोज में हिमालय में भी पन्द्रह से अधिक वर्ष व्यतीत किये हैं।

स्वामी कर्मवीर का जन्म एक सभ्य और शिक्षित किसान परिवार में हुआ था। बचपन से ही उनका झुकाव आध्यात्मिक जीवन की और था। उन्होंने विभिन्‍न संतों और योगियों, विशेष रूप से स्वामी दयानंद सरस्वती के जीवन और शिक्षाओं से प्रेरणा प्राप्त की और बहुत कम उम्र

में संन्यास आश्रम में दाखिल हो गए। भारत के हरिद्वार नगर मैं पवित्र गंगा के किनारे पर स्थित विश्वविद्यालय गुरुकुल कांगड़ी द्वारा उन्होंने वेद, दर्शन तथा योग मैं पोस्ट ग्रेजुएट डिग्री प्राप्त की.

वेद, दर्शन तथा योग में शिक्षा पूरी करने के पश्चात वे भारत के उत्तरी क्षेत्र की ओर असम और भारत भूटान सीमा पर स्थित क्षेत्रों में जाकर योग और आयुर्वेद की सहायता से आदिवासियों के कल्याण में लग गए। कुछ समय पश्चात वह हिमालय पर्वत को प्रस्थान॑ं कर गए और कई वर्षों तक वहां की कंदराओं में रह कर साधना की.

हिमालय की पर्वत श्रृंखलाओं में प्रवास व भ्रमण के दौरान उन्हें अनेक प्रतिष्ठित साधू संतों व साध्यियों की संगत प्राप्त हुई. 'तदोपरांत उन्होंने अपना जीवन पूर्ण रूप से वेद तथा योग ज्ञान के प्रचार प्रसार व मानव जीवन के कल्याण में समर्पित कर दिया.

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